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________________ ३४२ तत्त्वार्थसूत्र [७. २०-२२. के बिना होनेवाला निरर्थक व्यापार अनर्थदण्ड कहलाता है और इसका त्याग कर देना अनर्थदण्डविरतिव्रत है। व्रती श्रावक जीवन में ऐसा एक भी काम नहीं करता है जो बिना प्रयोजन का हो और ऐसा प्रसङ्ग पाने पर वह उससे अपने को निरन्तर बचाता रहता है, यह अनर्थदण्डविरतिव्रत को स्वीकार करने का तात्पर्य है। इन तीन व्रतों का पालन करना पाँच अणुव्रतों के लिये गुणकारी है, इसलिये ये गुणव्रत कहे जाते हैं। - विवक्षित काल तक मन, वचन और काय सम्वन्धी बाह्य प्रवृत्ति से निवृत्त होकर समता परिणामों से एकत्व का अभ्यास करना सामायिक है। इस अभ्यास में णमोकार आदि पदों का पुनः ' पुनः नियत उच्चारण करना सहायक होने से वह भी सामायिक है । पर सामायिक में शब्दोच्चारण की अपेक्षा चिन्तवन की ही मुख्यता है। पर्व दिनों में पञ्चेन्द्रियों के विषयों से निवृत्त होकर चार प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास है। इस अवसर पर अपने शरीर का संस्कार करना, स्नान करना, सुगन्ध लगाना, माला पहिनना, आभूषण पहिनना, व्यापार करना या घर के दूसरे काम करना आदि समस्त व्यापारों का त्याग कर देना चाहिये और चैत्यालय, साधुनिवास या उपवासगृह आदि एकान्त स्थान में धर्मकथा करते हुए समय बिताना चाहिये। भोजन, पानी और माला आदि उपभोग हैं तथा बिछौना, चारपाई और वस्त्राभूषण आदि परिभोग हैं। इनका निरन्तर आवश्यकता को कम करते हुए परिमाण करते रहना उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत है। इस व्रत में केवल उपभोगपरिभोग की वस्तुएं बदलती रहती हैं पर होता है यह जीवन भर के लिये । जीवन का ऐसा एक भी क्षण नहीं होता जब यह व्रत न हो । इस व्रत के धारी को ऐसी बहुतसी वस्तुएँ हैं जिनका वह सदा के लिये त्याग कर देता है। उदाहरणार्थ-वह मधु, मांस और मद्य का कभी
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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