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७. २०-२२.] अगारी व्रती का विशेष खुलासा ३४१
त्रस और स्थावर सब प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग न हो सकने के कारण जीवन भर के लिये सङ्कल्पी त्रस हिंसा का त्याग कर पाँच अणुव्रत व देना और स्थावर जीवों की हिंसा तथा प्रारम्भ भी
यथा सम्भव कम करते जाना अहिंसाणुव्रत है। भयवश, आशावश, स्नेहवश या लोभवश कम से कम ऐसा असत्य नहीं बोलना जो गृहविनाश या ग्रामविनाश का कारण हो सत्याणुव्रत है। बिना दिये हुए दूसरे के द्रव्य को नहीं लेना अचौर्याणुव्रत है। अपनी विवाहिता स्त्री या विवाहित पुरुप के सिवा शेप सब स्त्रियों या पुरुपों की ओर बुरी निगाह से नहीं देखना ब्रह्मचर्याणुव्रत है तथा आवश्यकता को कम करते हुए जीवन भर के लिये आवश्यकतानुसार धनधान्य आदि बाह्य परिग्रह का परिमाण कर लेना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है।
जीवन भर के लिये अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार पूर्व आदि सभी दिशाओं की मर्यादा निश्चित करके उसके बाहर धर्मकार्य के सिवा
व अन्य निमित्त से जाने आने आदि रूप किसी प्रकार तीन गुणवत
का व्यापार नहीं करना दिग्विरतिव्रत है। इस व्रत में एक बार स्वीकृत दिशाओं की मर्यादा को कालान्तर में घटाया तो जा सकता है पर बढ़ाना किसी भी हालत में सम्भव नहीं है। इसमें भी प्रयोजन के अनुसार घड़ी, घण्टा, दिन, पक्ष आदि के हिसाब से क्षेत्र का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर धर्मकार्य के सिवा अन्य निमित्त से जाने आने आदिरूप किसी भी प्रकार का व्यापार नहीं करना देशविरतिव्रत है। यद्यपि यह व्रत नियत समय के लिये लिया जाता है तथापि एक बार स्वीकृत व्रत की कालमर्यादा पूरी होने के साथ ही पुनः देशमर्यादा कर ली जाती है। व्रती का बिना देशमर्यादा के एक क्षण भी नहीं जाता है, अन्यथा व्रतभङ्ग का दोष लगता है, इस प्रकार परम्परा से यह व्रत भी जीवन भर चालू रहता है। प्रयोजन