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तत्त्वार्थसूत्र
[७. १७. निर्जन्तु तो है । प्रायः देखा यह जाता है कि सर्वत्र चींटी आदि सूक्ष्म जन्तुओं का संचार होता रहता है, इसलिये उनको दूर करने के लिये मृदु उपकरण का रखना भी आवश्यक है। ये उसके संयम से सम्बन्ध रखनेवाली वस्तुएं हैं। इनके सिवा ऐसी वस्तु नहीं दिखलाई देती जिसके विना शरीर की रक्षा न हो सके। भोजन तो बिना पात्र के ही हो जाता है। गृहस्थ भोजन देता है सो वह अन्य बाह्य आलम्बन के बिना भी लिया जा सकता है। साधुको स्वयं भोजन नहीं बनाना पड़ता जिससे उसके लिये पात्रका रखना आवश्यक माना जाय । वह तो उसे बना बनाया ही मिल जाता है, इस लिये बिना पात्र के भी उसका काम चल जाता है। जहां साधुत्वके योग्य भोजन मिला वहीं ले लिया, जब इतने से ही यह कृत्य पूरा हो जाता है तब क्या आवश्यकता है कि साधु पात्र अवश्य रखे। यह तो अनावश्यक संचय है जिसका सहज ही बिना बाधाके त्याग किया जा सकता है। यही कारण है कि साधु के लिये पात्र रखने का निषेध किया गया है। अब वस्त्रों के सम्बन्ध में विचार कीजिये। क्या यह
आवश्यक है कि साधुका वस्त्रों के बिना चल नहीं सकता। वस्त्र रखने के दो ही कारण हो सकते हैं। एक तो अपनी कमजोरी को छिपाना और दूसरे शरीर की अशक्तता। किन्तु ये दोनों ही कारण ऐसे हैं जो साधुत्व के विरोधी हैं। साधुके जीवन में न तो ऐसी कमजोरी ही शेष रहती है जिससे उसे वस्त्र स्वीकार करना पड़े। यह गृहस्थ की कमजोरी है जिससे वह वस्त्रादि को स्वीकार करता है। और न उसका शरीर ही इतना अशक्त होता है जिसके कारण वह वस्त्र रखने के लिये बाध्य हो । भला सोचिये तो कि जिसने जीवन में पूर्ण स्वावलम्बन की दीक्षा ली है वह शरीर को असक्त मान कर उसका निर्वाह कैसे कर सकता है। यदि फिर भी वह ऐसा करता है तो कहना चाहिये कि उसने स्वावलम्बन के मर्म को ही नहीं समझा है। प्रायः ऐसे बहुत से गरीब