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७. १७.] परिग्रह का स्वरूप
३३१ जो कि संसार की जड़ है। गृहस्थी के त्याग का उपदेश इसीलिये दिया जाता है । इस प्रकार जो ममकार और अहंकार भाव गृहस्थी के रहते हुए सम्भव है वही भाव वस्त्र पात्र आदि के होने पर भी होता है यही कारण है कि साधुत्वकी प्राप्ति के लिये उनका भी त्याग करना आवश्यक बतलाया गया है। बाह्य वस्तु में रंचमात्र मूर्छा के रहते हुए अंशतः भी साधुत्व की प्राप्ति सम्भव नहीं है। साधुत्वकी प्राप्ति के साथ यह एक क्रम है जिससे उसके वस्त्र पात्र आदि स्वयं छूट जाते हैं। इसलिये इनके त्यागका उपदेश दिया गया है।। __शंका-जब कि शरीर पर है और उससे जब तक इस आत्मा का सम्बन्ध बना हुआ है तब तक शरीर की रक्षा के लिये यदि साधु आहारादि के समान वस्त्रादि को ग्रहण करता है तो इसे उसकी कमजोरी क्यों समझा जाता है। यदि स्वावलम्बन पूर्वक जीवन बिताने के लिये त्याग करना ही इष्ट हो तो सबका त्याग होना चाहिये,अन्यथा
आवश्यक वाह्य पदार्थों के स्वीकार करने में आपत्ति ही क्या है ? ___ समाधान-यहां यह देखना है कि शरीर के लिये क्या आवश्यक है ? भोजन और पानी तो अनावश्यक माना नहीं जा सकता है और यह तब तक आवश्यक है जब तक शरीर इसे स्वीकार करता है। हां जब शरीर ही इसे अस्वीकार कर देता है तब इसका त्याग करना अनुचित नहीं माना जाता है। इस प्रकार जब कि शरीर के लिये भोजन और पानी आवश्यक हो जाते हैं तो उनके मल मूत्र बनने पर उनका विसर्जन करना भी आवश्यक हो जाता है और यह विसर्जन की क्रिया विना पानी के सम्पन्न नहीं की जा सकती है, इसलिये पानी के लिये कमण्डलु का रखना भी आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार जब तक उसके शरीर का परिग्रह लगा हुआ है तब तक उसका उठना, बैठना आदि क्रियाओं का किया जाना भी आवश्यक है। यद्यपि ये क्रियाएं जमीन पर की जाती हैं पर वहां यह देखना होता है कि वह