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________________ ७. १७.] परिग्रह का स्परूप ३२६ साधु अन्य पदार्थों को रखते हुए भी मूर्छा रहित हैं उन्हें अपरिग्रही माना जाना चाहिये ? समाधान-सूत्रकार ने परिग्रह परिणामत्रत के अतीचार बतलाते हुए धन धन्य आदि पदार्थों के अतिक्रमण करने को उसके अतीचार बतलाये हैं। इससे एक बात का तो पता लगता ही है कि जहाँ सूत्रकार परिग्रह का लक्षण करते हुए मूर्छा को परिग्रह बतलाते हैं वहाँ उसके त्याग का उपदेश देते हुए वे बाह्य पदार्थ धन धान्य आदि का त्याग मुख्यता से कराना चाहते हैं। यदि सूत्रकार की इस वर्णनशैली पर सूक्ष्मता से ध्यान दिया जाय तो उससे यह बात अपने आप फलित हो जाती है कि वे धन धान्य आदि बाह्य पदार्थों को तो परिग्रह मानते ही रहे क्योंकि मूर्छा के बिना इनका सद्भाव बन नहीं सकता, किन्तु इनके अभाव में भी जो इन पदार्थों की आसक्ति होती है वह भी परिग्रह है यह बतलाने के लिये उन्होंने मूर्छा को परिग्रह कहा है। मूर्छा व्यापक है और धन धान्य आदि व्याप्य, यही कारण है कि सूत्रकार ने परिग्रह का लक्षण कहते समय मूर्छा पर जोर दिया है किन्तु मूर्छा का त्याग बाह्य वस्तुओं का त्याग किये बिना हो नहीं सकता, इसलिये परिग्रहत्यागमें बाह्य पदार्थों के त्याग पर अधिक जोर दिया है। इस स्थिति में पात्र और वस्त्रधारी साधु अपरिग्रही नहीं माना जा सकता है। शंका-यदि अपरिग्रही साधुको वस्त्र पात्र आदिका त्याग करना आवश्यक है तो इसके समान उसे पीछी और कमण्डलु का त्याग करना भी आवश्यक होना चाहिये ? समाधान-यद्यपि साधु एक पीछी, कमण्डलु ही क्या वह अणु मात्र भी परिग्रह का त्यागी होता है, अन्यथा वह सकल परिग्रहका त्यागी नहीं बन सकता है तथापि उसे जो पीछी कमण्डलु के रखने की शास्त्राज्ञा है सो वह उसे अपने उपयोग के लिये नहीं है किन्तु संयम की
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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