________________
३२८
तत्त्वार्थसूत्र
[७. १७. हिंसा आदि दोषों की ही पुष्टि होती है इसीसे मैथुन को अब्रह्म कहा है । दूसरे ब्रह्म का अर्थ अपने आत्मस्वरूप को छोड़ कर स्त्री आदि पर वस्तु में मुख्यता से रममाण होना है अतः काम सेवन को अब्रह्म कहा है॥१६॥
परिग्रह का स्वरूपमूर्खा परिग्रहः ॥ १७ ॥ मूर्छा परिग्रह है।
मूर्छा का अर्थ है किसी भी वस्तु में अपनत्व का अनुभव करना या उसे अपनी मालिकी को समझना । संसार में जड़ और चेतन . छोटे बड़े अनेक पदार्थ हैं उनमें यह संसारी प्राणी मोह या रागवश अपनत्व को या अपने मालिकीपन की कल्पना करता रहता है। उनके संयोग में यह हर्ष मानता है और वियोग में दुःख । उनकै अर्जन, संचय और संरक्षण के लिये यह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। श्राब तो इन बाह्य पदार्थों के ऊपर स्वामित्व स्थापित करने के लिये और ऐसा करके अपने अपने देशवासियों की सुख सुविधा बढ़ाने के लिये राष्ट्र राष्ट्र में युद्ध होने लगे हैं। अब न्याय नीति के प्रचार और असदाचार के निवारण के लिये युद्ध न होकर अपने अपने व्यापार विस्तार
आदि कारणों से युद्ध होते हैं। इधर इस द्वन्द्व में एक ओर साधन सामग्री को समविभागीकरण की भावना काम कर रही है तो दूसरी
ओर उसके उच्चाटन में सारी शक्ति का उपयोग किया जा रहा है। वास्तव में देखा जाय तो इन सब प्रवृत्तियों की तह में मूर्छा ही काम करती है इस लिये सूत्रकार ने मूर्छा को ही परिग्रह कहा है।
‘शंका-यतः सूत्रकार ने मूर्छा को परिग्रह बतलाया है अतः धन धान्य आदि पदार्थं परिग्रह नहीं प्राप्त होते और ऐसी हालत में जो