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७. १४.] असत्य का स्वरूप
३२३ का विधान है। क्योंकि बुद्धिपूर्व किसी भी प्रकार का राग द्वेष बना रहना जीवन की बड़ी भारी कमजोरी है। इस दृष्टि से तो सब प्रकार के विकार भाव हिंसा ही माने गये हैं। यही कारण है कि मुनि को सब प्रकार की प्रवृत्ति के अन्त में प्रायश्चित करना पड़ता है। किन्तु गृहस्थ की स्थिति इससे भिन्न है। उसका अधिकतर जीवन प्रवृत्ति मूलक ही व्यतीत होता है। वह जीवन की कमजोरी को घटाना चाहता है । जो कमजोरी शेष है उसे बुरा भी मानता है पर कमजोरी का पूर्णतः त्याग करने में असमर्थ रहता है, इसलिये वह जितनी कमजोरी के त्याग की प्रतिज्ञा करता है उतनी उसके अहिंसा मानी गई है और जो कमजोरी शेष है वह हिंसा मानी गई है। किन्तु यह हिंसा व्यवहार मूलक ही होती है अतः इसके इसका निषेध नहीं किया गया है। पहले जिस आपेक्षिक अहिंसा की या प्रारम्भजन्य हिंसा की हम चर्चा कर आये हैं वह गृहस्थ की इसी वृत्ति का परिणाम है। यह हिंसा संकल्पी हिंसा की कोटि की नहीं मानी गई है।। १३ ॥
असत्य का स्वरूप
असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ॥ असत् बोलना अनृत अर्थात् असत्य है।
कोई वस्तु है पर उसका बिलकुल निषेध करना, जैसी है वैसी नहीं बतलाना या बोलते समय अशिष्ट वचनों का प्रयोग करना असत् वचन हैं। जो प्राणी अपने जीवन में इस प्रकार के वचनों का प्रयोग करता है वह असत्य दोप का भागी होता है।
शंका-माता, पिता या अध्यापक बालक को सुमार्ग पर लाने के लिये और आचार्य शिष्य को शासन करते समय कठोर वचन बोलते हैं, तो क्या यह सब कथन असत्य की कोटि में आता है ?
समाधान-नहीं।