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________________ ३२२ तत्त्वार्थसूत्र [७. १३. ध्वंस करता है तो बहुत सम्भव है कि ऐसा करनेवाले व्यक्ति के प्रति विद्वेषभाव हो जाय । किन्तु ऐसे समय में स्त्री आदि की रक्षा का भाव होना चाहिये उसे मारने का नहीं। हो सकता है कि रक्षा करते समय उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाय । यदि रक्षा का भाव हुआ तो वही यापेक्षिक अहिंसा है और मारने का भाव हुआ तो वही हिंसा है। मुख्यतया ऐसी हिंसा को ही संकल्पी हिंसा कहते हैं। कहीं कहीं यह हिंसा अन्य कारणों से भी होती है। जैसे शिकार खेलना आदि सो इसकी परिगणना भी संकल्पी हिंसा में होती है। संकल्पी हिंसा उसका नाम है जो इरादतन की जाती है। कसाई आदि जो भी हिंसा करते हैं उसे भी इसी कोटि की हिंसा समझना चाहिये। माना कि उनकी यह आजीविका है पर गाय आदि को मारते समय हिंसा का संकल्प किये बिना बध नहीं हो सकता इसलिये यह संकल्पी हिंसा ही है। प्रारम्भी और संकल्पी हिंसा में इतना अन्तर है कि आरम्भ में गृहनिर्माण करना, रसोई बनाना, खेती बाड़ी करना आदि कार्य की मुख्यता रहती है। ऐसा करते हुए जीव मरते हैं अवश्य पर इसमें सीधा जीव को नहीं मारा जाता है और संकल्प में जीव वध की मुख्यता रहती है। यहाँ कार्यका श्रीगणेश जीव वध से ही होता है। . रागभाव दो प्रकार का माना गया है-प्रशस्त और अप्रशस्त । जीवन शुद्धि के निमित्तभूत पदार्थों में राग करना प्रशस्त राग है और शेष अप्रशस्त राग है। है तो यह दोनों प्रकार का रागभाव हिंसा ही परन्तु जब तक रागभाव नहीं छूटा है तब तक अप्रशस्त राग से प्रशस्त राग में रहना उत्तम माना गया है। इसी से शास्त्रकारों ने दान देना पूजा करना, जिन मन्दिर बनवाना, पाठशाला खोलना, उपदेश करना, देश की उन्नति करना आदि कार्यों का उपदेश दिया है। जीवन में जिसने पूर्ण स्वावलम्बन को उतारने की अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा.ली है उसे बुद्धिपूर्वक सब प्रकार के राग द्वेष के त्याग करने
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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