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________________ ३१६ तत्त्वार्थसूत्र [७.९-१२. रूप धारण कर लेती है और जिससे विद्वेष की भावना जागृत होना सम्भव है वहाँ वह उसका प्रशमन करने के लिये माध्यस्थ का रूप 'धारण कर लेती है। इस प्रकार एक मैत्री भावना ही पात्रभेद से तीन प्रकार की हो जाती है यह इसका तात्पर्य है, इसलिये मैत्री भावना का विषय प्राणीमात्र बतलाया है और शेष भावनाओं के विषय उस उस भावना के अनुसार अलग अलग बतलाये हैं ॥११॥ यद्यपि इन भावनाओं से अहिंसा आदि व्रतों की पुष्टि होती है तथापि इसके लिये संवेग और वैराग्य भावना का होना और भी जरूरी है, क्योंकि इनके बिना अहिंसा आदि व्रतों का प्राप्त होना और प्राप्त हुए व्रतों का पालना सम्भव नहीं है। फिर भी इन दोनों की प्राप्ति जगत्स्वभाव और कायस्वभाव के चिन्तवन से होती है इसलिये प्रस्तुत सूत्र में संवेग और वैराग्य की प्राप्ति के लिये इन दोनों का चिन्तवन करना आवश्यक बतलाया है। ___ इस जग में जीव नाना योनियों में दुःख भोग रहे हैं, उन्हें सुख का लेश भी प्राप्त नहीं। जीवन जल के बुलबुले के समान विनश्वर है इत्यादि रूप में जग के स्वभाव का चिन्तवन करने से उसके प्रति मोह दूर होकर उससे संवेग-भय पैदा होता है। इसी प्रकार शरीर की अस्थिरुता, अशुचिता और निःसारता आदि रूप. स्वभाव का चिन्तवन करने से उससे वैराग्य उत्पन्न होता है ॥१२॥ हिसा का स्वरूपप्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥ प्रमत्तयोग से प्राणों का विनाश करना हिंसा है। 'पहले हिंसादि दोषों से निवृत्त होना व्रत बतलाया है पर वहाँ उन हिंसादि दोषों के स्वरूप पर प्रकाश नहीं डाला गया है जिनका स्वरूप समझना जरूरी है, अतः आगे इन दोषों के स्वरूप पर प्रकाश
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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