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________________ ३१५ ७. ६-१२.] अन्य सामान्य भावनाय जाते हैं और वह उभय लोक में निन्दा का पात्र भी होता है, इसलिये हिंसादि दोषों का त्याग करना श्रेयस्कर है, यह प्रस्तुत सूत्र का अभिप्राय है॥६॥ ___ प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःख से भय खाता है। वह चाहता है कि न तो मुझे दुःख प्राप्त हो और न दुःख के साधन ही प्राप्त हों। किन्तु ऐसा तब हो सकता है जब वह सुख और दुःख के साधनों में विवेक प्राप्त करके दुःख के साधनों के त्याग द्वारा सुख के साधनों को दृढ़ता से स्वीकार करे। देखा जाता है कि रक्षा स्वपर हितकारी है और हिंसा स्वपर दुःखकारी, इससे ज्ञात होता है कि हिंसा का त्याग करके अहिंसादि धर्मों को स्वीकार करना हो सुख का मार्ग है। तथापि इन हिंसादि दुःख के साधनों का पूरी तरह से त्याग तब हो सकता है जब इनमें भली प्रकार से दुःखदर्शन का अभ्यास किया जाय, इसी से यहाँ हिंसा आदि दोपों को दुःख रूप से मानने की वृत्ति के सतत अभ्यास करते रहने का उपदेश दिया है। इस प्रकार हिंसादि दोषों में दुःखभावना के जागृत होने से प्राणी उनसे विरत होकर सुख के मार्ग में लग जाता है ॥ १०॥ पहले की तरह हिंसादि दोषों के त्याग द्वारा अहिंसादि व्रतों की रक्षा के लिये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं का सतत अभ्यास करते रहना भी उपयोगी बतलाया है। मैत्री का अर्थ है सबमें अपने समान समझने की भावना। इससे अपने समान ही और सबको दुःखी न होने देने की भावना जागृत होती है। यह सामान्य भावना है, क्योंकि इसका विषय प्राणीमात्र है। शेष तीन इसके अवान्तर भेद हैं, क्योंकि यह मैत्री भावना ही कहीं पर प्रमोदरूप, कहीं पर करुणारूप और कहीं पर माध्यस्थरूप से प्रस्फुटित होती है। जिससे अपना गुणोत्कर्ष होना सम्भव है वहाँ वह प्रमोदरूप हो जाती है। जिससे अन्तःकरण द्रवित हो उठता है वहाँ पर वही करुणा का
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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