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________________ ७.१३.] हिंसा का स्वरूप ३१७ डाला जाता है। उसमें भी सर्वप्रथम इस सूत्रद्वारा हिंसा के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। सूत्र में प्रमत्तयोग से प्राणों के विनाश करने को हिंसा बतलाया है, इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि प्राणों का विनाश करना हिंसा है, पर वह प्रमत्तयोग से किया हुआ होना चाहिये। जो प्राणों का विनाश प्रमत्तयोग से अर्थात् राग-द्वेपरूप प्रवृत्ति के कारण . हिंसाका लाक्ष- होता है वह तो हिंसा है शेप नहीं यह इस सूत्रका णिक अर्थ तात्पर्य है। यहाँ प्रमत्तयोग कारण है और प्राणों का विनाश कार्य है। आगम में प्राण दो तरह के बतलाये हैं द्रव्यप्राण और भावप्राण । प्रमत्तयोग के होने पर द्रव्य प्राणों का विनाश होता ही है ऐसा कोई नियम नहीं है, हिंसा के अन्य निमित्त मिल जाने पर द्रव्य प्राणों का विनाश होता भी है और नहीं मिलने पर नहीं भी होता है। इसी प्रकार कभी कभी प्रमत्तयोग के नहीं रहने पर भी द्रव्य प्राणों का विनाश देखा जाता है। उदाहरणार्थ-साधु ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हैं। उनके रञ्चमात्र भी प्रमत्तयोग नहीं होता, तथापि कदाचित् गमन करने के मार्ग में अचानक क्षुद्र जन्तु आकर. और पैर से दब कर मर जाता है। यहाँ प्रमत्तयोग के नहीं रहने पर भी प्राणव्यपरोपण है, इसलिये मुख्यतया प्रमत्तयोग से जो भाव प्राणों का विनाश होता है वह हिंसा है ऐसा यहाँ तात्पर्य समझना चाहिये। जैन आगम में हिंसा विकार का पर्यायवाची माना गया है। जीवन में जो भी विकार विद्यमान है उससे प्रतिक्षण आत्मगुणों का ... ह्रास हो रहा है । यह विकारभाव कभी-कभी भीतर "' ही भीतर काम करता रहता है, और कभी कभी बाहर प्रस्फुटित होकर उसका काम दिखाई देने लगता है। किसी पर क्रोध करना, उसको मारने के लिये उद्यत होना, गाली देना, अपमान करना, झूठा लाञ्छन लगाना, सन्मार्ग के विरुद्ध साधनों को जुटाना
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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