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तत्त्वार्थसूत्र
[७. ३-८. नियमों का उचित ध्यान रखकर ही भिक्षा लेना भैक्षशुद्धि है और साधमी से 'यह मेरा कमण्डलु है इसे तू नहीं ले सकता' इत्यादि रूप से विसंवाद नहीं करना सधर्माविसंवाद है। इस प्रकार ये अचौर्यव्रत को पाँच भावनायें हैं।
. निवासस्थान दो प्रकार के हो सकते हैं एक वे जो प्राकृतिक होते हैं । जैसे--पर्वतों की गुफा आदि और दूसरे वे जो बनवाये जाते हैं किन्तु बनवाकर जो अतिथियों के लिये छोड़ दिये जाते हैं या जिनका स्वामी उन्हें यों ही मुक्तद्वार छोड़कर अन्यत्र चला गया है. इसलिये जिनमें ठहरने के लिये दूसरे किसी को रुकावट नहीं है। इस प्रकार ये दोनों प्रकार के स्थान अस्वामिक होने से यदि साधु ऐसे ही स्थानों को अपने उपयोग में लाता है अन्य स्थानों को नहीं तो इससे अचौर्यव्रत की रक्षा होती है इसलिये तो शून्यागारावास और विमोचितावास ये दो अचौर्यव्रत की भावनायें बतलाई हैं। जिन स्थानों में साधु ठहर गया हो वहाँ दूसरे को आने से यदि वह रोके तो उस स्थान में उसकी निजत्व की कल्पना सम्भव होने से चोरी का दोष लगता है, इसी दोप से बचने के लिये परोपरोधाकरण यह तीसरी भावना बतलाई है । भिक्षाशुद्धि के जो स्वाभाविक नियम बतलाये हैं उनके अनुसार ही साधु भिक्षा ले सकता है, अन्य प्रकार से नहीं। अन्य प्रकार से लेने पर चोरी का दोष आता है, क्योंकि उस प्रकार से लेना विहित मार्ग नहीं है। इससे तृष्णा की वृद्धि होती है, इसलिये इस दोष से बचने के लिये चौथी भावना बतलाई है। पीछी और कमण्डलु ये शुद्धि के तथा शास्त्र यह ज्ञानार्जन का उपकरण है। जैसे गृहस्थ धन, धान्य आदि परिग्रह का स्वामी होता है वैसे साधु इनका स्वामी नहीं होता। तथापि यह कहने से कि यह मेरा कमण्डलु है तुम इसे नहीं ले सकते, उसमें ममत्व प्रकट होता है और यह भाव चोरी है, इसलिये इस प्रकार के दोष से बचने के लिये सधर्माविसंवाद पाँचवीं भावना बतलाई है।