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________________ ७.३-८.] व्रतों की भावनायें ३११ मुख से अच्छे बुरे किसी भी प्रकार के शब्द न बोलकर मौन धारण करना वचनगुप्ति है। मन को अशुभ ध्यान से बचाकर आत्म हितकारी विचारों में लगाना मनोगुप्ति है। किसी को क्लेश न हो इसलिये यतनापूर्वक चार हाथ भूमि शोधते हुए गमन करना ईर्यासमिति है। शास्त्र, पीछी और कमण्डलु को लेते और रखते समय अवलोकन व प्रमार्जन करके लेना या रखना आदाननिक्षेपणसमिति है। खाने पीने की वस्तु को भलीभाँति देखभालकर लेना और लेने के बाद भी वैसे ही देख भालकर खाना पीना आलोकितपानभोजन है। इस प्रकार ये अहिंसाव्रत की पाँच भावनायें हैं। ____ क्रोध, लोभ, भय और हास्य का त्याग करना क्रमशः क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान और हास्यप्रत्याख्यान है। तथा निर्दोष बोलना अनुवीचिभाषण है। इस प्रकार ये सत्यव्रत की पाँच भावनायें हैं। शङ्का-बोलते समय हँसी आ जाने से अर्थ का अनर्थ होना सम्भव है इसलिये हास्यत्याग का सत्यव्रत के साथ सम्बन्ध तो समझ में आता है पर क्रोध, लोभ और भय के त्याग का सत्यव्रत के साथ क्या सम्बन्ध है यह समझ में नहीं आता ? समाधान-अधिकतर लोग क्रोध, लोभ और भय के वश होकर असत्य बोलते हैं, इसलिये सत्यव्रत के पालने के लिये इनका त्याग करना आवश्यक है; यही समझकर सत्यव्रत की भावनाओं में इन क्रोधादिक के त्याग का उपदेश दिया है। पर्वत की गुफा, वृक्ष के कोटर आदि में निवास करना शून्यागारावास है। जिस आवास का दूसरे ने त्याग कर दिया हो और जो मुक्तद्वार हो उसमें निवास करना विमोचितावास है। जिस स्थान में अपन ने निवास किया हो, ध्यान लगाया हो या तत्त्वोपदेश दिया हो वहाँ दूसरे साधु को आने से नहीं रोकना परोपरोधाकरण है। भिक्षा के
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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