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________________ ७. २.1 ब्रतों की भावनायें ३०६. हिंसादिक का त्याग करना चाहिये यह विहित मार्ग है, क्योंकि असत्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाना ही व्रत है। किन्तु त्यागोन्मुख प्रत्येक प्राणी द्वारा इन सबका सार्वत्रिक और सार्वकालिक त्याग एकसा नहीं हो सकता; जिसकी जितनी शक्ति होगी वह उतना ही त्याग कर सकत। है। इसलिये यहाँ हिंसा आदि दोषों की निवृत्ति के एकदेश और सर्वदेश ये दो भाग कर दिये हैं। यदि हिंसा आदि दोपों से एकदेश निवृत्ति होती है तो वह असुव्रत कहलाता है और सर्वदेश निवृत्ति होती है तो वह महाव्रत कहलाता है। संसारी जीवों के त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं । काय से ऐमी प्रवृत्ति ही नहीं करना जिससे इन दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा हो। यदि प्रवृत्ति करना भी हो तो समितिपूर्वक प्रवृत्ति करना। मुख से हिंसाकारी वचन नहीं बोलना और मन में किसी भी प्रकार की हिंसा का विकल्प नहीं रखना। इसी प्रकार असत्य आदि के त्याग के विपय में भी जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि हिंसा आदि दोषों से काय, वचन और मन द्वारा हर प्रकार से छूट जाना महाव्रत है तथा इन सब दोषों से एकदेश छुटकारा पाना अणुव्रत है ॥२॥ वतों की भावनायें - तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३॥ वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥४॥ ____ क्रोधलोमभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च ॥ ५॥ शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माविसंवादाः पञ्च ॥ ६॥
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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