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________________ ३०८ तत्त्वार्थसूत्र [७.१. जिससे दृष्टि प्रलोभनों में ही उलझ जाती है। प्रलोभनों से दृष्टि फिरने ही नहीं पाती। घर प्रलोभनों को लेकर ही वापिस आते हैं। अब तो ऐसे स्थल भी निश्चित कर दिये गये हैं जो इन प्रलोभनों का सजीव प्रचार करते हैं । पद्मपुरी इसका मुख्य उदाहरण है । वर्तमान अवस्था में यह सांस्कृतिक तीर्थस्थान नहीं कहा जा सकता। इससे कामना की शिक्षा मिलती है त्याग और स्वावलम्बन की नहीं। महावीर जी का प्रचार भी इसी भावना से किया जाने लगा है। यों तो यह प्रयत्न सैकड़ों वर्षों से चालू है। शासन देवताओं के नाम पर सकाम पूजा को इसी से प्रोत्साहन मिला है। कुछ ऐसी स्तुतियाँ और पूजायें भी बन गई हैं जिनसे सांस्कृतिक दृष्टिकोण बदल कर अनेक प्रकार के प्रलोभनों की शिक्षा मिलती है। कुछ, स्तुति पाठ अंशतः अपने मौलिक रूप में भले ही हों पर उनका भी ऐसी कल्पित कथाओं से सम्बन्ध जोड़ा गया है जिससे वे ऐहिक तृष्णा की पूर्ति में काम आने लगे हैं। इस वृत्ति का अन्त कहाँ होगा यह कहना कठिन है। व्यक्ति कमजोरी का शिकार हो यह दूसरी बात है किन्तु तीर्थकरों की शिक्षाओं का मुख ही विपरीत दिशा में फेर दिया जाय यह कहाँ तक उचित है ? जिन धर्म के उपदेशकों को यह सोचने की बात है। वे स्वयं व्यक्तिगत प्रलोभन से बचकर और सांस्कृतिक दृष्टिकोण को हृदयंगम कर ऐसा कर सकते हैं। उन्हें अपने उत्तरदायित्व को अनुभव करने को आवश्यकता है। यदि उपदेशकों का दृष्टिकोण बदल जाय तो एक रात्रि भोजन के त्याग का प्रचार ही क्या जैन संस्कृतिकी निर्मल धारा पुनः प्रवाहित की जा सकती है। व्रत के भेददेशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ __हिंसादिक से एकदेश विरति अणुव्रत है और पूर्ण विरति महाव्रत है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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