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७. १.] व्रत का स्वरूप
३०७ परिणाम की सच्ची परीक्षा तो यहीं होती है। रात्रि भोजन का त्यागी होने के नाते जीवन में जो स्वावलम्बन की शिक्षा ली है उसका दृढ़ता पूर्वक कहाँ तक पालन होता है यह ऐसे स्थल पर ही समझा जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को उस धर्म (स्वावलम्बन) को दृढ़ता पूर्वक पालना चाहिये जो कि उसके प्रारम्भिक कर्तव्यों में सम्मिलित है। धर्म व्यक्तिगत वस्तु है इसलिये अपने पतन और उत्थान के लिये व्यक्ति ही दायी है। कमजोरी के स्थलों का निर्देश करके धर्म की रक्षा नहीं की जा सकती। किन्तु जो स्थल कमजोरी के हैं उन स्थलों पर दृढ़ बने रहने से ही धर्म की रक्षा होती है।
आज कल एक नई प्रथा और चल पड़ी है। अधिकतर व्याह शादियों में या सार्वजनिक प्रसंगों पर रात्रि को भी सामूहिक भोज दिया जाने लगा है। कहीं इसमें अन्न का बचाव रखा जाता है, कहीं अन्न के स्थान में सिंघाड़े आदि से काम लिया जाता है और कहीं तो अन्न का ही वर्ताव किया जाता है। यह रोग बढ़ता ही जा रहा है। बाह्य प्रलोभन इतना अधिक रहता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति कमजोरी का शिकार हो जाता है। माना कि यह प्रत्येक का व्यक्तिगत दोष है कि वह ऐसे स्थल पर अपने प्रारम्भिक कर्तव्य को भूल जाता है पर जब तक जीवन में स्वावलम्बन का महत्त्व नहीं समझा है और जीवन परावलम्बी बना हुआ है तब तक सहयोग प्रणाली के आधार से इतना तो होना ही चाहिये कि उस द्वारा ही कम से कम ऐसी कमजोरी की शिक्षा न दी जाय जिसका प्रारम्भ में त्याग करना आवश्यक है। हुआ क्या है कि वर्तमान में सबकी दृष्टि फिर गई है। सब अपने अपने आध्यात्मिक जीवन के महत्त्व को ही भूल गये हैं। मन्दिर में जाकर स्वावलम्बन की पूर्ण शिक्षा देनेवाली मूर्ति के दर्शन करते हैं अवश्य पर हृदय पर स्वावलम्बन का भाव अङ्कित नहीं होने पाता। वहाँ भी प्रलोभन के इतने अधिक साधन उपस्थित कर दिये गये हैं