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________________ ३०६ तत्त्वार्थसूत्र [७.१. पड़ती हैं। यदि उन क्रियाओं से सर्वथा उपेक्षाभाव रखा जाता है तो आत्माश्रित ध्यान, भावना आदि क्रियाओं का किया जाना ही कठिन हो जाता है। पर इतने मात्र से उसकी स्वावलम्बन पूर्वक जीवन यापन की भावना लुप्त नहीं हो जाती है, क्योंकि शरीर के साथ रागभाव के रहते हुए बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक शरीरमूलक सब प्रकार की क्रियाओं को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता है। जिन क्रियाओं के नहीं करने से शरीर की स्थिति बनी रह सकती है वे क्रियायें तो छोड़ दी जाती हैं किन्तु जो क्रियायें शरीर की स्थिति के लिये आवश्यक हैं उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। दृष्टि शरीर के अवलम्बन को कम करते हुए स्वावलम्बन की ही रहती है। यह शरीर के लिये की जानेवाली क्रियाओं को प्रशस्त नहीं मानता और कारणवश ऐसी क्रिया के नहीं करने पर परम आनन्द का अनुभव करता है। इस प्रकार इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्ममात्र स्वावलम्बन की शिक्षा देता है। अतः जो व्यक्ति जीवन की कमजोरी वश जीवन में पूर्ण स्वावलम्बी बनने की प्रतिज्ञा नहीं कर पाता अतएव गृहस्थ धर्म को स्वीकार करता है या वैसी श्रद्धा के आधार से अपने जीवन यापन का निर्णय करता है उसे पर वस्तुओं के ऐसे अवलम्बनों का तो त्याग करना ही चाहिये जिन्हें वह छोड़ सकता है। रात्रि में भोजन करना, बिड़ी सिगरेट पीना, नशा के दूसरे कार्य करना ये ऐसे काम हैं जिनसे एक तो आत्मा मलिन होता है, दूसरे इन्हें छोड़ देने से शरीर की कोई हानि नहीं होती। और ऐसा करने से आंशिक स्वावलम्बन की शिक्षा भी मिलती है, अतः किसी भी परिस्थिति में रात्रि भोजन नहीं करना चाहिये। माना कि किसी कारखाने आदि में काम करने पर अनेक परतन्त्रताओं का सामना करना पड़ता है और चालू जीवन को सरलता पूर्वक बिताना दूभर हो जाता है पर यही स्थल तो परीक्षा का कहा जा सकता है। मानस
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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