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________________ ६. १०-२७.] आठ प्रकार के कर्मों के पात्रवों के भेद २९३ मनुष्यों की संगति करना आदि अरति नोकषाय वेदनीय कर्म के आस्रव हैं। स्वयं शोकातुर रहना तथा ऐसी चेष्टाएँ करना जिससे दूसरे शोकातुर हों आदि शोक नोकषाय वेदनीय कर्म के आस्रव हैं। स्वयं भय खाना, दूसरों को भय उत्पन्न करना, आदि भय नोकषाय वेदनीय कर्म के आस्रव हैं। कुशल क्रिया और कुशल आचरण से ग्लानि करना आदि जुगुप्सा नोकषाय वेदनीय कर्म के आस्रव हैं। असत्य बोलने की आदत, परदोष दर्शन और राग की तीव्रता आदि स्त्री नोकषाय वेदनीय, कर्म के आस्रव हैं। गुस्सा का कम आना, अनुत्सुकता और स्वदार सन्तोष आदि पुंनोकपाय वेदनीय कर्म के आस्रव हैं तथा कपाय की बहुलता, गुह्य इन्द्रियों का विच्छेद करना और पर स्त्री आलिंगन आदि नपुंसक नोकषाय वेदनीय कर्म के आस्रव हैं ॥१४॥ प्राणियों को दुःख पहुँचानेवाला व्यापार प्रारम्भ है तथा यह वस्तु ही मेरी है अर्थात् मैं इसका मालिक हूँ इस प्रकार का संकल्प परिग्रह है। जब बहुत प्रारम्भ और बहुत बारावों का __परिग्रह का भाव हो, हिंसा आदि क्रर कार्यों में निरस्वरूप ' तर प्रवृत्ति हो, दूसरों का धन अपहरण करने की भावना रहे, विषयों में अत्यन्त आसक्ति बनी रहे, मरण के समय रौद्र ध्यान हो जाय, मान की तीव्रता हो, पत्थर की रेखा के समान रोष हो, चारित्र मिथ्यात्वप्रचुर हो, लोभ से सतत जकड़ा रहे तब वे नरकासु के आस्रव होते हैं। ____ इसी प्रकार और जितने भी अशुभ भाव हैं वे सब नरकायु के आनव जानना चाहिये ।। १५ ।। निमित्त मिलने पर माया कषाय के उदय से जो छल प्रपञ्च करन. का भाव या कुटिल भाव पैदा होता है वह माया है। जब धर्म तत्त्व के उपदेश में स्वार्थवश मिथ्या बातों को मिलाकर प्रचार किया जाय, जीवन में शील का पालन न किया जाय, दूसरों के छिद्र देखने की प्रवृत्ति बनी रहे, मरने के समय अशुभ नरव
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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