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________________ २६४ तत्त्वार्थसूत्र [६. १०-२७. लेण्या व आर्तध्यान रहे, कुटिल तरह से कार्य करने में रुचि हो तब वे तिर्यञ्चायु के आस्रव होते हैं। इसी प्रकार और जितने भाव हैं वे सब तिर्यश्चायु के आस्रव जानना चाहिये ।। १६॥ अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह का भाव होना, जीवन में विनय मनुष्यायु के पासव और भद्रता का होना, सरलता पूर्वक व्यवहार करना, - कषाय का कम होना, मरते समय संक्लेश रूप परिणामों का न होना आदि मनुष्यायु को बास्रव हैं। तथा बिना उपदेश के स्वभाव से मृदुता का होना मनुष्यायु और देवायु दोनों के आस्रव हैं।। १७-१८॥ ___ पहले नरकायु, तियञ्चायु और मनुष्यायु के जुदे-जुदे आस्रव बतला आये हैं तथा देवायु के आस्रव बतलानेवाले हैं। इनके सिवा चारों ना आयुओं के सामान्य आस्रव भी हैं यही बतलाना . प्रस्तुत सूत्र का प्रयोजन है। क्रोध और लोभ आदि " का त्याग करना शील है तथा तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत ये भी शील कहलाते हैं। अहिंसा, सत्य और अचौर्य आदि व्रत हैं। उक्त शीलों से रहित होना निःशीलत्व है और व्रतों से रहित होना निव्रतत्व है। ये निःशीलत्व और निव्रतत्व चारों आयुओं के प्रास्रव हैं। यहाँ निःशीलत्व और निर्बतत्व देवायु का आस्रव मुख्यतया भोगभूमिजों की अपेक्षा से बतलाया है, क्योंकि भोगभूमि के प्राणी शीलों और व्रतों से रहित होने पर भी नियम से देवायु का ही बन्ध करते हैं ॥ १९॥ ___ पाँच महाव्रतों के स्वीकार कर लेने पर भी रागांश का बना रहना सराग-संयम है। इसका सद्भाव दसवें गुणस्थान तक है। व्रताव्रत रूप देवायु कर्म के पासूब म परिणाम संयमासंयम है। इसके कारण गृहस्थ के "त्रसहिंसा से विरति रूप और स्थावर हिंसा से अविरतिरूप परिणाम होते हैं। परवशता के कारण भूख प्यास की बाधा
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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