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तत्त्वार्थसूत्र [६. १०-२७. करना कि साधुलोग अशुचि रहते हैं, स्नान नहीं करते। स्नान न करने से साधुत्व का क्या सम्बन्ध है ? इससे थोड़े ही साधुत्व प्राप्त होता है इत्यादि सङ्घ का अवर्णवाद है। मुख्य धर्म है विकारों पर विजय पाना जिसकी प्राप्ति अहिंसा द्वारा ही हो सकती है। अहिंसा से ही प्राणी यह सीखता है कि जिससे दूसरे प्राणियों का जीवन सङ्कट में पड़कर वर्गकलह को प्रोत्साहन मिले वह भी हिंसा है। आत्मा को बतृष्ण्य बनाने का अहिंसा सर्वोत्कृष्ट साधन है। प्राणी अपनी वासनाओं पर अहिंसा के बिना विजय नहीं पा सकता, इसलिये व्यवहार से और परमार्थ से अहिंसा ही सर्वोत्कृष्ट धर्म है तथापि अपनी आसुरी प्रवृत्ति के आधीन होकर अहिंसा धर्म की खिल्ली उड़ाना और यह कहना कि अहिंसा के स्वीकार करने से मानव जाति और राष्ट्र का पतन हुआ है आदि धर्म का अवर्णवाद है । यद्यपि देव अमृताहारी हैं तथापि उन्हें मांस और सुरा का सेवन करनेवाला बतलाना और उनके निमित्त से तैयार किये गये मांस और सुरा को देवता का प्रसाद मानकर स्वयं भक्षण करना आदि देवावर्णवाद है।
ये वा इसी प्रकार के और भी जितने दोष सम्भव हों वे सब दर्शनमोहनीय कर्म के प्रास्त्रव-बन्ध हेतु हैं॥ १३ ॥ • स्वयं कषाय करना और दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वी जनों के व्रतों में दूषण लगाना तथा संक्लेशकर लिंगों और व्रतों का धारण
करना आदि चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रव हैं। चरित्रमोहनीय के
- सत्य धर्म का उपहास करना, गरीब मनुष्य की प्रास्त्रों का स्वरूप
मश्करी करना, बहुत वकवास और ठट्ठ वाजी की प्रवृत्ति चालू रखना आदि हास्य नोकषाय वेदनीय कर्म के आस्रव हैं। नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में संलग्न रहना, व्रतों और शीलों के पालने में अरुचि रखना रति नोकषाय वेदनीय कर्म के आस्रव हैं। दूसरों में अरति-वेचैनी उत्पन्न करना, रति आराम का नाश करना और पापी