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________________ ६. १०-२७.] आठ प्रकार के कर्मों के आस्रवों के भेद २६१ जिन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति हो गई है वे केवली की कहलाते हैं । इनके द्वारा उपदेशे गये और अतिशय शासबों का स्वरूप ऋद्धिवाले गणधरों द्वारा स्मरण करके रचे गये ग्रन्थ श्रुत कहलाता है। रखत्रय से युक्त श्रमणों का ममुदाय सङ्घ कहलाता है। अहिंसा, मार्दव आदि को धर्म कहते हैं। देव चार प्रकार के हैं। इन सबका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है। जिसमें जो दोष नहीं हैं उनका उसमें उद्भावन करना अवर्णवाद है । जैसे-केवली के परम औदारिक शरीर की प्राप्ति हो जाती है। केवलज्ञान के प्राप्त होने के पूर्व ही क्षीणमोह गुणस्थान में उनके शरीर से मलादि दोप और स-स्थावर (निगोद)जीव नष्ट हो जाते हैं। सयोगकेवली अवस्था में फिर इनकी उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। धातुओं की हीनाधिकता के कारण जो शरीर का उपचय और अपचय होता है वह केवली के नहीं होता, इसलिये उन्हें पहले के समान कवलाहार की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे नोकर्म का आहार करके ही शरीर को स्थित रखने में समर्थ हैं, तथापि केवली को कवलाहारजीवी बतलाना और इसकी पुष्टि के लिये दूसरे संसारी जनों का उदाहरण उपस्थित करना केवली का अवर्णवाद है। श्रत में यति धर्म और गृहस्थधर्म ये दो धर्म बतलाये हैं। यति जीवन में पूरी और गृहस्थ एकदेश अहिंसा को पालते हैं। गृहस्थ एकदेश अहिंसा का पालन करता हुआ भी त्रसहिंसा से अपने को बचाता है इसलिये यद्यपि श्रुत में यति और श्रावक द्वारा मांसभक्षण का उल्लेख नहीं है तथापि जिस ग्रन्थ में यति या श्रावक की ऐसी कल्पित घटना लिखी गई हो जिससे मांसभक्षण आदि की पुष्टि होती हो, उस ग्रन्थ को श्रुत मानना श्रुतावर्णवाद है। या श्रुत में मांसभक्षण बतलाया है यह कहना श्रुतावरणवाद है। साधु जो कुछ भी अनुष्ठान करते हैं आत्मशुद्धि के लिये करते हैं, ब्रत नियमों का पालन भी वे इसी हेतु करते हैं। तथापि यह अपवाद
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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