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तत्त्वार्थसूत्र
[ ६. १०-२७.
ज्ञानावरण और
तत्त्वज्ञान के निरूपण के समय व्याख्यान नहीं करनेवाले पुरुष का भीतर ही भीतर जलते रहना प्रदोष है । तत्त्वज्ञान के पूछने पर या उसके साधन माँगने पर, अपने पास दर्शनावरण कर्मों के वे होने पर भी छिपाने के अभिप्राय से यह कहना • आसूत्रों का स्वरूप कि मैं नहीं जानता था मेरे पास वह वस्तु नहीं है, निव है । तत्त्वज्ञान अभ्यस्त और परिपक्क हो तथा वह देने योग्य भी हो फिर भी जिस कारण से वह नहीं दिया जाता है वह मात्सर्य है । ज्ञान या ज्ञान के साधनों की प्राप्ति में बाधा डालना अन्तराय है । दूसरे के द्वारा तत्त्वज्ञान पर प्रकाश डालते समय शरीर से या वाणी से उसका निषेध करना आसान है । किसी का किसी खास विपय का ज्ञान निर्दोष है तो भी उसमें दूषण लगाना उपघात है ।
शङ्का - आसादन और उपघात में क्या अन्तर है ?
समाधान - प्रशस्त ज्ञान के रहते हुए भी उसकी विनय न करना, दूसरे के सामने उसकी प्रशंसा न करना आदि आसादन है औन ज्ञान को अज्ञान मानकर उसके नाश करने का अभिप्राय रखना उपघात है, यही इन दोनों में अन्तर है ।
ये प्रदोषादिक यदि ज्ञान, ज्ञानी और उसके साधनों के विषय में किये गये हों तो ज्ञानावरण कर्म के आस्रव - बन्धहेतु होते हैं और -दर्शन तथा दर्शन के साधनों के विषय में किये गये हों तो दर्शनावरण कर्म के आसव - बन्धहेतु होते हैं ॥१०॥
पीड़ारूप परिणाम दुःख है । किसी उपकारी या प्रिय वस्तु का सम्बन्ध टूटने पर जो घबराहट पैदा होती है वह शोक है। अपवाद आदि के निमित्त से मन में कलुषता बढ़कर जो तीव्र असातावेदनीय कर्म सन्ताप होता है वह ताप है । सन्ताप आदि के के सूत्रों का स्वरूप कारण गद्गद् स्वर से आँसू गिराने के साथ विलाप करते हुए चिल्लाकर रोना आक्रन्दन है । मार डालना वध है । वियुक्त