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६. १०-२७.] आठ प्रकार के कर्मों के प्रास्त्रवों के भेद २८७ से कषाय की अवान्तर जातियों में अन्तर हो कर वे प्रमुखता से अलग अलग कर्मों के बन्धहेतु होते हैं, यही बात अगले सूत्रों में बतलाई गई है । तथापि इस प्रकरण को विधिवत् समझने के पहले कर्मों की बन्धः विषयक कुछ बातों पर प्रकाश डाल देना आवश्यक है
१-गुणस्थान क्रम से यह नियम है कि प्रारम्भ के नौ गुणस्थानों तक आयु कर्म के सिवा शेष सात कर्मों का बन्ध निरन्तर हुआ करता है और आयुकर्म का बन्ध मिश्र गुणस्थान के सिवा अप्रमत्त गुणस्थान तक आयुबन्ध के योग्य काल और परिणामों के होने पर होता है। इसके सिवा दसवें गुणस्थान में मोहनीय के बिना शेष छ: कर्मों का तथा अगले तीन गुणस्थानों में एक सातावेदनीय का बन्ध होता है। अतः इस प्रकरण में जो प्रत्येक कर्म के बन्ध कारण बतलाये जा रहे हैं सो उसका यह अभिप्राय नहीं कि विवक्षित कर्म के बन्ध कारणों के रहने पर केवल उसी कर्म का बन्ध होगा अन्य कर्म का नहीं, किन्तु इसका यह अभिप्राय है कि उस समय उस कर्म का तत्काल बँधनेवाले दूसरे कर्मों की अपेक्षा अधिक अनुभागबन्ध होगा। इसी विवक्षा से ये आगे प्रत्येक कम की अपेक्षा आस्रव के विभाग किये गये हैं।
२-दूसरी बात यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि बन्ध के कारणों में सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमरूप आत्म-परिणामों को भी गिनाया गया है पर तत्त्वतः ये बन्ध के कारण न होकर मुक्ति के ही कारण हैं। फिर भी यहाँ इनको बन्ध के कारणों में गिनाने का यह अभिप्राय है कि इनके सद्भाव में योग और कषाय से अमुक कर्म का ही बन्ध होता है अन्य का नहीं । उदाहरणार्थ मनुष्य और तिर्यञ्चगति में सम्यग्दर्शन के रहने पर 'देवायु का ही बन्ध होता है, अन्य तीन आयुओं का नहीं। इसी से सम्यक्त्व को देवायु के बन्ध के कारणों में गिनाया है।
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