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________________ ६. १०-२७.] आठ प्रकार के कर्मों के आस्रवों के भेद २८६ हुए व्यक्ति के गुणों का स्मरण कर ऐसा रोना जिससे सुननेवाले को दया पैदा हो परिदेवन है। यद्यपि केवल दुःख के कहने से इन सब का ग्रहण हो जाता है तथापि दुःख के अवान्तर भेदों को दिखलाने के लिये पृथक् रूप से इनका निर्देश किया है। शङ्का-यदि दुःखादिक अपने में, दूसरे में था दोनों में उत्पन्न करने से उत्पन्न करनेवाले के लिये असातावेदनीय कर्म के आस्रव होते हैं तो फिर अहन्मतानुयायी केशलोच, उपवास, आतापन योग और आसन आदि में क्यों विश्वास करते हैं, क्योंकि ये भी दुःख के निमित्त होने से असातावेदनीय कर्म के प्रास्त्रव ठहरते हैं ? समाधान-जो दुःखादिक क्रोध आदि के आवेश से होते हैं वे अमातावेदनीय कर्म के आस्रव होते हैं, अन्य नहीं। मुनि जो केशलोच और उपवास आदि विधिविधान करता है वह दुःख के लिये नहीं, किन्तु इन्द्रिय, मन और बाह्य परिस्थिति पर विजय पाने के लिये ही करता है; इसलिये उसके उनके करने से परम प्रसन्नता उत्पन्न होती है, दुःख नहीं। सर्वत्र यह मान लेना ठीक नहीं कि जिन कारणों से एक को सन्ताप होता है उन्हीं कारणों से दूसरे को भी सन्ताप होना ही चाहिये। यह साधना का विषय है जिसने इन्द्रिय, मन और कपायों पर विजय पा ली है वह बाह्य जगत् की अपेक्षा दुःख के कारण रहने पर भी दुखी नहीं होता और जिसने उन पर विजय नहीं पाई है वह दुःख के अत्यल्प कारण मिलने पर भी अत्यन्त दुखी होने लगता है, इसलिये केशलोच आदि व्रतों के पालन करने में यति की मानसिक रुचि होने के कारण वे उसके लिये दुःख के कारण नहीं होते। जैसे कोई वैद्य चीरफाड़ में निमित्त होने पर भी पापभागी नहीं होता, क्योंकि उसका उद्देश्य दूसरे को रोगमुक्त करना है, वैसे ही संयमी या व्रती श्रावक संसार से छुटकारा पाने के लिये छुटकारा पाने के साधनों
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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