SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० तत्त्वार्थसूत्र [५. ३४-३६. और अनन्ताणुक स्कन्ध की उत्पत्ति होती है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। पुद्गल में ऐसी स्वाभाविक योग्यता है जिससे वह इन गुणों के कारण बन्ध को प्राप्त होता है। जीव को जिस प्रकार प्रतिसमय के बन्ध के लिये अलग अलग निमित्त लगते हैं उस प्रकार पुद्गल को ऐसे बन्ध के लिये अलग अलग निमित्त अपेक्षित नहीं है। किन्तु वह इन गुणों के कारण परस्पर में सुतरां बन्धको प्राप्त होता है ॥ ३३ ॥ बन्धके सामान्य नियम के अपवादन जघन्यगुणानाम् ॥३४॥ गुणसाम्ये सदशानाम् ॥३॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥३६॥ जघन्य गुण-शक्त्यंशवाले अवयवों का बन्ध नहीं होता। समान शक्त्यंशके होने पर सहशों का बन्ध नहीं होता। किन्तु द्रो शक्त्यंश अधिक श्रादि वाले अवयवों का बन्ध होता है। यहाँ गुण शब्द शक्त्यंश या पर्यायवाची है। प्रत्येक गुण की पर्याय एक सी नहीं होती। वह प्रति समय बदलती रहती है । इसलिये यह प्रश्न होता है कि प्रत्येक पुद्गल हर अवस्था में क्या बन्ध का प्रयोजक माना गया है या इसके कुछ अपवाद है। यहाँ प्रस्तुत सूत्रों में से पहले और दूसरे सूत्र द्वारा इन्हीं अपवादों का विचार किया गया है और तीसरे सूत्र द्वारा बन्ध की योग्यता का निर्देश किया गया है। प्रथम सूत्र में यह बतलाया गया है कि जिन परमाणुओं में स्निग्ध और रूक्ष पर्याय जघन्य हो उनका बन्ध नहीं होता। वे तब तक परमाण दशा में ही बने रहते हैं जब तक उनकी जघन्य पर्याय नहीं बदल जाती है। इससे यह फलित होता है कि जिनकी जघन्य पर्याय नहीं
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy