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________________ ५. ३३.] पौद्गलिक बन्ध के हेतु का कथन _____ २५९ दृष्टि से नित्य है और दूसरी दृष्टि से अनित्य है। त्रैकालिक अन्वयरूप परिणाम की अपेक्षा नित्य है और प्रति समय होनेवाली पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। इससे वस्तु को परिणामीनित्यता सिद्ध होती है। किन्तु इन दोनों धर्मों का वस्तु में एक साथ कथन नहीं किया जा सकता है। उनका क्रम से कथन करना पड़ता है, इसलिये जिस समय जिस धर्म का कथन किया जाता है उस समय उसको स्वीकार करनेवाली दृष्टि मुख्य हो जाती है और इससे विरोधी धर्म को स्वीकार करनेवाली दृष्टि गौण हो जाती है। वस्तु में विरुद्ध दो धर्मों की सिद्धि इसी प्रकार होतो है॥३२ ।। पौद्गलिक बन्ध के हेतु का कथन-- स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः॥३३॥ स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बन्ध होता है। स्निग्धत्व का अर्थ चिकनापन है और रूक्षत्व का अर्थ रूखापन है। ये पुद्गल के स्पर्श गुण की पर्याय हैं जो पुद्गल के परस्पर बन्ध में प्रयोजक मानी गई हैं। इन्हीं के कारण द्वयणुक आदि स्कन्धों की उत्पत्ति होती है । एक परमाणु का दूसरे परमाणु से अकारण बन्ध नहीं होता है किन्तु उस बन्ध में उनकी स्निग्ध पर्याय या रूक्ष पर्याय कारण होती है। ___यद्यपि प्रत्येक कार्य के होने में बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के कारण लगते हैं। किसी एक के बिना कार्य नहीं होता। फिर भी यहाँ पर बाह्य कारण का निर्देश न करके केवल आन्तर कारण का निर्देश किया गया है। इसके द्वारा यह बतलाया गया है कि बन्ध कार्य के प्रति पुद्गल की उपादान योग्यता क्या है जिससे एक पुद्गल का दूसरे पुद्गल से बन्ध होता है। इस स्निग्ध और रूक्षरूप योग्यता के द्वारा ही द्वथणुक, व्यणुक, चतुरणुक, संख्याताणुक, असंख्याताणुक
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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