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________________ २५८ तत्त्वार्थसूत्र [५. ३२. नित्य । तात्पर्य यह है कि जैसे त्रिकाल में अपनी जाति का नहीं त्याग करना प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव है वैसे ही उसमें रहते हुए परिणमन करना भी उसका स्वभाव है। यही उसकी परिणामीनित्यता है। इस प्रकार वस्तु को परिणामीनित्य मान लेने पर उसमें सन्तान की अपेक्षा से ध्रौव्य और परिणाम की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय के घटित होने में कोई दोष नहीं आता। जग में चेतन या अचेतन जितने भी पदार्थ हैं वे सब उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक हैं यह इसका तात्पर्य है ॥३१॥ पूर्वोक्त कथन की सिद्धि में हेतुअर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३२ ॥ अर्पित का अर्थ मुख्य और अनर्पित का अर्थ गौण है। वस्तु अनेकान्तात्मक है। उसमें प्रयोजनवश जिस धर्म की मुख्यता होती है वह विवक्षावश प्रधानता को प्राप्त होकर अर्पित कहा जाता है और उससे विपरीत धर्म अनर्पित हो जाता है। उस समय उसकी विवक्षा न होने से वह गौण हो जाता है। उसका कथन नहीं किया जाता है। इसलिये एक ही पदार्थ को कभी नित्य और कभी अनित्य कहने में कोई विरोध नहीं आता है। यदि द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा रहती है तो वह नित्य कहा जाता है और पर्यायार्थिक नय की विवक्षा रहती है तो वह अनित्य कहा जाता है। जिस प्रकार एक ही मनुष्य अपने पिता की अपेक्षा पुत्र कहा जाता है और अपने पुत्र की अपेक्षा पिता कहा जाता है । इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है, उसी प्रकार प्रकृत में भी जानना चाहिये। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि जिस समय वस्त नित्य कही जाती है उस समय उसमें एकमात्र नित्य धर्म ही रहता है और जिस समय वह अनित्य कही जाती है उस समय उसमें एकमात्र अनित्य धर्म ही रहता है क्योंकि ऐसा मानना युक्तिसङ्गत नहीं है। वस्तु जिस प्रकार नित्य है उसी प्रकार वह अनित्य भी है। एक
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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