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________________ ५. ३०.] सत् की व्याख्या २५५ (१) व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अपहरण होकर वह सदा परतन्त्रता का अनुभव करता है। व्यक्ति की मालिकी जाकर सदा के लिये वह नौकर मानं रह जाता है। (२) उसे अपने उत्थान पतन के लिये दूसरे की ओर देखना पड़ता है। (३) उसके अपने कार्य में भी उसकी स्वतन्त्रता नहीं रहती। (४) अच्छा बुरा जो भी होता है वह ईश्वर की कृपा का फल होने से कार्य के विषय में संशोधन की भावना लुप्त होती है। (५) ईश्वरेच्छा के नाम पर एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर हावी होने का अवसर मिलता है जिससे अनेक विषमताएँ व संघर्ष जन्म पाते हैं। आज की आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था क संस्थावाद आदि इसी के फल हैं। ____ तथा स्वकत त्व और व्यक्तिस्वातन्त्र्य की भावना से निम्न लिखित भलाइयों को जन्म मिलता है (१) प्रत्येक व्यक्ति अपने को पूर्ण स्वतन्त्र अनुभव करता है। बह चेतन को तो ऐसा मानता ही है जड़ को भी ऐसा ही मानता है। (२) प्रत्येक व्यक्ति अपने अच्छे बुरे कार्यों के प्रति स्वयं अपने को उत्तरदायी अनुभव करता है। (३) एक व्यक्ति की दूसरे पर हावी होने की भावना का लोप होता है। (४) निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धों के बीच में किसी अज्ञात शक्ति के न होने के कारण सहयोग प्रणाली के आधार पर संतुलन रखने में सुविधा होती है जिससे किसी भी प्रकार की विषमता को जन्म देने में व्यक्ति निमित्त नहीं होने पाता। - शंका-जब जगत् का क्रम सुनिश्चित है तब ईश्वरवाद को दोष देने में क्या लाभ है ?
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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