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२५६ तत्त्वार्थसूत्र
[५. ३१. समाधान-ऐसा मान कर भी वर्तमान अव्यवस्था में कारण ईश्वरवाद तो है ही। जैसे विवक्षित व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्र हो सकता है पर उसकी वर्तमान दुरवस्था का कारण मिथ्यात्व माना जाता है, क्योंकि उसकी वर्तमान अवस्था का कारण वही है। वैसे ही वर्तमान में सर्वत्र जो विपमता फैली हुई है उसका कारण ईश्वरवाद की मान्यता ही है। इस मान्यता का त्याग किये बिना व्यक्ति न तो अपने को पूर्ण स्वतन्त्र अनुभव कर सकता है और न संसार बन्धन से उसका छुटकारा ही हो सकता है। ___शंका-यदि कहीं निमित्त और कहीं उपादान की प्रधानता मान लें तो क्या हानि है ? __समाधान-ऐसा मानने से प्रत्येक वस्तु की स्वतन्त्रता का घात होता है जो इष्ट नहीं है, अतः प्रत्येक पदार्थ की धारा अपनी योग्यतानुसार चालू रहती है और उस धारा के चालू रहने में अन्य अन्य पदार्थ निमित्त होते रहते हैं ऐसा मानना ही उचित है और यही सिद्धान्त पक्ष है ।। ३०॥
नित्यत्व का स्वरूपतद्धावाव्ययं नित्यम् ।। ३१ ।। उसके भाव से (अपनी जाति से) च्युत न होना नित्य है। पिछले सूत्र में वस्तु को त्रयात्मक बतलाया है। इस पर प्रश्न होता है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों एक साथ कैसे रह सकते हैं, क्योंकि इनके एक साथ रहने में विरोध आता है। जो उत्पाद-व्ययरूप है वह ध्रौव्यरूप नहीं हो सकता और जो ध्रौव्यरूप है वह उत्पादव्ययरूप नहीं हो सकता। जब कि ध्रौव्य नित्यत्व का सूचक है और उत्पाद-व्यय अनित्यत्व के सूचक हैं तब उसी को नित्य" और उसी को अनित्य मानना युक्त संगत नहीं, क्योंकि इससे विरोधादि अनेक दोष