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________________ २५४ तत्त्वार्थसूत्र [५.३०. तब तो ईश्वर की मान्यता का कोई मूल्य ही नहीं रहता । उसका मानना न मानने के समान हो जाता है। शंका-ईश्वरवाद की मान्यता के समान यदि इस मान्यता को भी त्याग दिया जाय तो क्या हानि है ? समाधान-यह वस्तु स्वभाव का उद्घाटनमात्र है। जगत् का जो क्रम चालू है उसे ही उद्घाटित करके बतलाया गया है इसलिये इसे मान्यता शब्द द्वारा कहा गया है। किन्तु ईश्वरवाद की मान्यता केवल कल्पना का विषय है। शंका-यदि कार्य के विषय में आंशिक परतन्त्रता मान लें तो क्या हानि है ? ___ समाधान-यह आंशिक परतन्त्रता की मान्यता ही पूर्ण परतन्त्रता की मान्यता की जननी है। ईश्वरवाद की मान्यता इसी भावना में से पनपी है। अतः निमित्त की मुख्यता से तो आंशिक परतन्त्रता बनती ही नहीं। हाँ यदि परतन्त्रता का अर्थ इतना किया जाता है कि कार्य जैसे उपादान से होता है वैसे वह निमित्तसापेक्ष भी होता है तो ऐसी मान्यता में कोई बाधा नहीं आती। यह कार्यकारणव्यवस्था के अनुकूल है। इससे निमित्त को मान कर भी प्रत्येक पदार्थ की स्वतन्त्रता यथावत् बनी रहती है। शंका-उक्त दोनों दर्शनों में से किसे मानने में लाभ है और किसे मानने में हानि है ? समाधान-यद्यपि हानि लाभ मान्यता में नहीं है, क्योंकि वस्तु व्यवस्था जैसी है वह अपने क्रमानुसार स्वयं चल रही है पर इन मान्यताओं के आधार से जीवन पर अच्छा बुरा प्रभाव तो पड़ता ही है । यथा ईश्वरवाद की मान्यता से निम्नलिखित बुराइयों को जन्म मिलता है
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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