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५. ३०.] सत् की व्याख्या
२५३ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने से यह कहा जाता है कि यह कार्य इस प्रयत्न का फल है।
शङ्का-तब तो जगत् का क्रम सुनिश्चित-सा प्रतीत होता है ? समाधान-ऐसा मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है।
शङ्का-यही आपत्ति है कि इससे बुद्धि को विश्राम मिल जाता है और प्रयत्न मन्द पड़ जाता है ? __समाधान-ऐसा मानने से न तो बुद्धि को विश्राम ही मिलता है
और न प्रयत्न ही मन्द पड़ता है, क्योंकि इनका भी अपनी अपनी दिशा में होना अनिवार्य है। होता यह है कि जिसकी बुद्धि या प्रयत्न जिस कार्य के बनने-बिगड़ने में निमित्त हो जाता है वह वहाँ सफलता या असफलता का भागी माना जाता है।
शङ्का-यदि इस दृष्टि से ईश्वर को निमित्त कारण मान लिया जाय तो क्या हानि है ?
समाधान-जिस आधार से ईश्वरवाद को माना गया है उसका इस मान्यता से कोई मेल नहीं बैठता।
शङ्का-इन दोनों मान्यताओं में क्या अन्तर है ? समाधान-ईश्वरवाद की मान्यता का मुख्य आधार उसकी इच्छा और उसका प्रयत्न है। वह जिस कार्य के विषय में जैसा सोचता है और जैसा प्रयत्न करता है वह कार्य उसीप्रकार का होता है। जिस समवायी कारण से वह कार्य बना है उसकी कोई स्वतन्त्रता नहीं रहती। किन्तु इस मान्यता में जड़ चेतन दोनों की स्वतन्त्रता अक्षुण्ण बनी रहती है उसमें कोई बाधा नहीं आती।
शंका-यदि इस मान्यता में निमित्त को जितना स्थान प्राप्त है उस रूप में ईश्वरवाद को मान लिया जाय तब तो कोई हानि नहीं है ?
समाधान-यदि इस रूप में ईश्वरवाद को स्वीकार किया जाता है