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२५२ तत्त्वार्थसूत्र
[५. ३०. लिये इस अपेक्षा से उपादान-उपादेय सम्बन्ध है और प्रत्येक कार्य के प्रति इसका होना अनिवार्य है, क्योंकि योग्यता के बिना कोई भी कार्य नहीं होता। जितने भी कार्य होते हैं वे सब अपने अपने उपादान से ही होते हैं। किन्तु पूर्व कर्म सब कार्यों में निमित्त नहीं है। कुछ ही कार्यो के होने में वह निमित्त है। ऐसे कार्य संसारी जीव के विविध प्रकार के भाव और उसकी विविध अवस्थायें तथा शरीर, वचन, मन
और श्वासोच्छ्रास ही माने गये हैं। इसलिये इन कार्यो से दैव का अर्थात् पूर्व कर्म का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध माना गया है। इन कार्यों के सिवा जगत् में और जितने भी कार्य होते हैं वे अन्य अन्य निमित्तों से होते हैं, पूर्व कर्म उनका निमित्त नहीं है।
शङ्का-यदि निमित्त कारण प्रेरक नहीं होता तब तो यह मानना चाहिये कि प्रत्येक कार्य अपने उपादान की योग्यतानुसार ही होता है ?
समाधान-ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं है।
शङ्का तो फिर निमित्त कारण क्यों माने गये हैं, क्योंकि इस स्थिति में निमित्तों की विशेष आवश्यकता तो नहीं रह जाती है ?
समाधान-वे हैं, अतः माने गये हैं, इसलिये उनकी आवश्यकता और अनावश्यकता का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
शङ्का-तब तो यदि कोई यह मानकर बैठ जाय कि जब जो होना होगा सो होगा, हम प्रयत्न क्यों करें, तो क्या हानि है ?
समाधान-ऐसा मानकर बैठ जाने में हानि तो कुछ भी नहीं है, पर ऐसा मानकर वह बैठता कहाँ है। जिन कार्यों के प्रति उसका राग नहीं है उनके लिये भले ही यह बहाना करे पर जिन कार्यों में उसकी रुचि है उन्हें तो वह प्रयत्नपूर्वक करना ही चाहता है । यद्यपि यह ठीक है कि प्रत्येक कार्य उपादान की योग्यतानुसार ही होता है और प्रयत्न भी तदनुकूल होता है, पर होते हैं ये दोनों स्वतन्त्र ही। केवल इनका