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________________ २४२ तत्त्वार्थसूत्र [५. २९-३०. दूसरे चाक्षुष स्कन्ध के साथ मिलकर स्थूलता को प्राप्त करता है और तब जाकर अचाक्षुष स्कन्ध चाक्षुष होता है। इसप्रकार अचाक्षुप स्कन्ध केवल भेद से और केवल सङ्घात से चाक्षुष नहीं होता किन्तु भेद और सङ्घात दोनों से चाक्षुप होता है यह सिद्ध होता है ।। २८ ॥ द्रब्य का लक्षणसद् द्रव्यलक्षणम् ॥ २९ ॥ द्रव्य का लक्षण सत् है। लोक में जितने पदार्थ हैं वे सबके सब सद्रूप हैं, ऐसा एक भी पदार्थ नहीं जो अस्तित्व के बहिर्मुख हो । यतः द्रव्य का मुख्य धर्म द्रवता-छान्वयशीलता है जो अस्तित्व से भिन्न नहीं, इसलिये द्रव्य का लक्षण सत् कहा है। यद्यपि द्रव्य अनेक हैं और उनकी विविधता भी सकारण है तथापि सद्रूप से सब एक हैं, इसलिये 'सत्' यह लक्षण सब द्रव्यों में घट जाता है। ।। २६ ॥ 'सत्' की व्याख्याउत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ ३० ॥ जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त अर्थात् तदात्मक है वह सत् है। जैनदर्शन के सिवा अन्य दर्शनों में सत् के विषय में चार मत मिलते हैं। एक मत यह है कि जगत् में जो कुछ है वह एक है, सद्रूप है और नित्य है। किन्तु इसके विपरीत दूसरा मत यह है कि जगत् में जो कुछ है वह नाना है और विशरणशील ( उत्पाद-व्ययशील ) है। तीसरा मत सत् को तो मानता ही है पर इसके सिवा सत् की परिभाषा सत से भिन्न असत् को भी मानता है। वह सत् में भी परमाणुद्रव्य और काल, आत्मा आदि को नित्य और कार्यद्रव्य ... * श्वेताम्बर परम्परा में यह सूत्र नहीं है ।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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