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५. ३०.] सत् की व्याख्या
२४३ घट पट आदि को अनित्य मानता है। चौथा मत सत् के चेतन और अचेतन दो भेद करता है और उसमें चेतन को नित्य तथा अचेतन को परिणामी नित्य मानता है। एक ऐसा भी मत है जो जगत् की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करता।।
किन्तु जैनदर्शन में सत् की परिभाषा भिन्न प्रकार से को गई है। उसमें किसी भी पदार्थ को न तो सर्वथा नित्य ही माना है और न सर्वथा अनित्य ही। कारणद्रव्य सर्वथा नित्य और कार्यद्रव्य सर्वथा अनित्य है, यह भी उसका मत नहीं है किन्तु उसके मत से जड़ चेतन समग्र सद्रूप पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप हैं। __ अपनी जाति का त्याग किये बिना नवीन पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है, पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है और अनादि पारिणामिक स्वभावरूप से अन्वय बना रहना ध्रौव्य है। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सत् या द्रव्य के निज रूप हैं।
जैसे कोयला जलकर राख हो जाता है। इसमें पुद्गल की कोयलारूप पर्याय का व्यय होता है और क्षाररूप पर्याय का उत्पाद होता है किन्तु दोनों अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्य का अस्तित्व अचल रहता है। उसके प्राङ्गार (Carbon ) तत्त्व का विनाश नहीं होता है। यही उसकी ध्रौव्यता है। द्रव्य विषयक उपयुक्त सिद्धान्त को दृष्टि में रखते हुए ही जैन सिद्धान्त में जगत्कर्ता की कल्पना को निराधार कहा गया है। द्रव्य अविनाशी है, ध्रुव है और इसलिये उसका शून्य में से निर्माण सम्भव नहीं। पुद्गल को जीव अथवा पुद्गल का निमित्त मिलने से उसमें केवल पर्यायों का ही परिवर्तन सम्भव है। जैनदर्शन का यह द्रव्यों की नित्यता का सिद्धान्त ही विज्ञान का प्रकृति की अनाश्यता का नियम ( Law of Indestructibility of Matter ) है। इस नियम को १८ वीं शताब्दि में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक लैह्वाइजियर ( Lavoisier ) ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया था-'कुछ भी निर्मेय