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तत्त्वार्थसूत्र
[५. १६-२० प्राणी का जीवन ही इन सबके ऊपर टिका हुआ है इसलिये यदि पुद्गलों के सब उपकार गिनाये जायँ तो वे अगणित हो जाते हैं। किन्तु उन सबको न गिना कर पुद्गलों के कुछ ही उपकारों का यहाँ निर्देश किया गया है। जिनसे संसारी प्राणी निरन्तर अनुप्राणित होता रहता है।
शरीर पाँच हैं-औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण। ये पाँचों नामकर्म के भेद हैं जो अतिसूक्ष्म होने से दृष्टिगोचर नहीं होते। किन्तु इनके उदय से जो उपचय शरीर प्राप्त होते हैं उनमें कुछ इन्द्रिय गोचर हैं और कुछ इन्द्रिय गोचर नहीं। ये सबके सब शरीर पौद्गलिक ही हैं, क्योंकि इनकी रचना पुद्गलों से हुई है। यद्यपि कार्मण जैसा सूक्ष्म शरीर पौद्गलिक है यह सब बात इन्द्रिय प्रत्यक्ष से नहीं जानी जा सकती है तथापि उसका सुख दुःखादि रूप विपाक मूर्त द्रव्य के सम्बन्ध से देखा जाता है इसलिये उसे पौद्गलिक समझना चाहिये। __वचन दो प्रकार के हैं भाववचन और द्रव्यवचन । उनमें से भाव वचन वीर्यान्तराय तथा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा प्रांगोपांग नामकर्म के उदय से होता है। यह पुद्गल सापेक्ष होने से पौद्गलिक है। तथा ऐसी सामर्थ्य से युक्त आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल ही द्रव्यवचन रूप परिणमन करते हैं, इसलिये द्रव्यवचन भी पौद्गलिक है। . इसीप्रकार मन दो प्रकार का है भावमन और द्रव्यमन । इनमें से लब्धि और उपयोग रूप भावमन है जो पुद्गल सापेक्ष होने से पौद्गलिक है। तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा
आंगोपांग नामकर्म के उदय से जो पुद्गल गुण-दोष का विचार और स्मरण आदि कार्यों के सन्मुख हुए आत्मा के उपचारक हैं वे ही द्रव्यमनरूप से परिणत होते हैं इसलिये द्रव्यमन भी पौद्गलिक है।