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________________ ५. १९-२०.] पुद्गल द्रव्य के कार्यों पर प्रकाश २२३ ___ जो वायु बाहर निकाला जाता है वह प्राण कहलाता है और जो बाहर से भीतर लिया जाता है वह अपान कहलाता है। वायु पौद्गलिक होने से प्राणापान भी पौद्गलिक है। ___यतः ये शरीरादिक आत्मा के अनुग्रहकारी हैं अतः इन्हें पुद्गलों का उपकार बतलाया है। सातावेदनीय कर्म के उदयरूप अन्तरंग कारण और द्रव्य, क्षेत्र आदि बाह्य कारण के मिलने पर आत्मा का जो प्रीति रूप परिणाम होता है वह सुख है। असाता वेदनोय कम के उदयरूप अन्तरंग कारण और द्रव्य, क्षेत्र आदि बाह्य कारण के मिलने पर आत्मा का जो परितापरूप परिणाम होता है वह दुःख है। आयुष्कर्म के उदय से विवक्षित पर्याय में स्थित जीव के प्राण और अपान का विच्छेद नहीं होना जीवित है और प्राणापान का विच्छेद होना मरण है। ये सुख दुःख आदि यद्यपि जीव की अवस्थाएँ हैं पर इनके होने में पुद्गल निमित्त है इसलिये ये भी पुद्गल के उपकार माने गये हैं। साता वेदनीय आदि कर्म सुखादिक की उत्पत्ति में निमित्तमात्र होने. से उपकारक माने गये हैं, तत्त्वतः ये सुखादिक जोव के ही परिणाम हैं इसलिये वही इनका कर्ता है यह दिखलाने के लिये 'सुखदुःख' इत्यादि सूत्र में उपग्रह वचन दिया है। इसका यह आशय है कि जैसे शरीर आदि पुद्गल के कार्य हैं वैसे सुख दुःखादि नहीं। शरीर आदि का पुद्गल स्वयं कर्ता है किन्तु सुख दुःखादि का नहीं यह इसका भाव है। शंका-यहाँ जितने भी उपकार गिनाये हैं वे सब ऐसे हैं जो जीवों को लक्ष्य में रखकर सूत्रकार ने निबद्ध किये हैं। किन्तु पुद्गल पुद्गलों के उपकार में भी तो प्रवृत्त होते हैं फिर उन्हें यहाँ क्यों नहीं गिनाया ? समाधान-पुद्गलों के निमित्त से जो अन्य पुद्गलों के उपकार होते हैं उनकी मुख्यता न होने से उन्हें यहाँ नहीं गिनाया है ।। ६-२०॥
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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