________________
२१६ तत्त्वार्थसूत्र
[५. १२-१६ पर भी नहीं दिखाई देते हैं। तथा हाथी जैसे या हाथी से बड़ी अवगाहनावाले जीव भी मौजूद हैं, इसलिये यह विचारणीय बात हो जाती है कि एक जीव का अवगाह क्षेत्र कम से कम कितना है और अधिक से अधिक कितना है ? इसी बात का विचार करते हुए बतलाया है कि एक जीव का अवगाह क्षेत्र कम से कम लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और अधिक से अधिक समग्र लोक है ! यहाँ लोक के असंख्यातवें भाग से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग लेना चाहिये । कम से कम जीव की अवगाहना इतनी है। इसके बाद अवगाहना बढ़ने लगती है जो बढ़ते बढ़ते सम्पूर्ण लोक प्रमाण प्राप्त होती है। यह लोक प्रमाण अवगाहना प्रत्येक जीव के सम्भव नहीं है। किन्तु केवली के केवल समुद्धात को दशा में अपने आत्मप्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेने पर उक्त अवगाहना प्राप्त होती है। यह सब अवगाहना एक जीव की अपेक्षा से बतलाई गई है। यदि सव जीवों की अपेक्षा से विचार किया जाता है तो अवगाह क्षेत्र सब लोक प्राप्त होता है, क्योंकि सब जीव राशि समग्र लोक को व्याप्त कर स्थित है।
अब प्रश्न यह उठता है कि परस्पर जीवों की अवगाहना में इतना अन्तर क्यों पड़ता है। इसका यह उत्तर है कि प्रत्येक संसारी जीव के कर्म लगे हुए हैं जिनके कारण उसे जब जैसा शरीर मिलता है तब उसकी वैसी अवगाहना हो जाती है क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि निमित्तानुसार वह प्रदीप की तरह संकोच और विकोच को प्राप्त होता रहता है। यदि दीपक को खुले मैदान में रख दिया जाता है तो उसका प्रकाश बहुत दूर तक फैल जाता है और यदि किसी छोटे बड़े अपवरक में रख दिया जाता है तो उसका प्रकाश उस अपवरक तक ही सीमित रहता है वैसे ही जीव द्रव्य के प्रदेशों में भी सकुड़ने
और फैलने की क्षमता है। उसे जब जैसा छोटा बड़ा शरीर मिलता है उसके अनुसार उसकी अवगाहना हो जाती है।