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________________ ५. १७.] धर्म और अधर्म द्रव्यों के कार्य पर प्रकाश २१७ शंका-यदि संकोच स्वभाव होने के कारण जीव को अवगाहना छोटी होती है तो उसकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग से और छोटी क्यों नहीं हो जाती है ? समाधान-जीव को जैसा शरीर मिलता है उसके अनुसार अवगाहना होती है, यतः सबसे जघन्य शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है अतः इससे छोटी अवगाहना नहीं होती। शंका-लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश है और जीव तथा पुद्गल अनन्तानन्त हैं, अतः इतने कम क्षेत्र में ये सब जीव और पुद्गल कैसे समा जाते हैं ? समाधान-यद्यषि बादर जीव सप्रतिघात शरीर होते हैं परन्तु सूक्ष्म जीव सशरीर होते हुए भी यतः सूक्ष्म भाव को प्राप्त हैं और एक निगोद शरीर में अनन्तानन्त निगोद जीव रह सकते हैं अतः लोकाकाश में अनन्तानन्त जीवों का समावेश विरोध को प्राप्त नहीं होता । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी सूक्ष्म रूप से परिणत होने की क्षमता रखते है, इसलिये उनका भी एक स्थान में परस्पर में बिना व्याघात पहुँचाए अवस्थान बन जाता है, इसलिये लोकाकाश में अनन्तानन्त पुद्गलों का समावेश भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है । १२-१६॥ धर्म और अधर्म द्रव्यों के कार्य पर प्रकाश--- गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७॥ गति और स्थिति में सहायक होना यह क्रमशः धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है ।। १७॥ द्रव्यों का पृथक पृथक अस्तित्व उनके स्वभाव गुण और कार्य या उपयोगिता पर अवलम्बित है। अधिकतर सूक्ष्म तत्त्वों के स्वभाव गुणका पता भी उनके कार्यों से लगता है । इसके लिये हमें एक स्थलपर स्थित विविध तत्त्वों का विविध कार्यों द्वारा विश्लेषण करना पड़ता
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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