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________________ ५. १२-१६] द्रव्यों के अवगाह क्षेत्र का विचार २१५ तीन, चार, पाँच, संख्यात और असंख्यात प्रदेश जान लेना चाहिये। यहाँ इतनी विशेषता है कि स्कन्ध में उत्तरोत्तर परमाणुओं की संख्या बढ़ती जाती है और अवगाह क्षेत्र हीन होता जाता है तभी तो अनन्तानन्त परमाणुओं का स्कन्ध लोक के असंख्यातवें भाग में समा जाता है। इस प्रकार पुद्गलों का अवगाह विकल्प से लोक के एक प्रदेश में है, दो प्रदेशों में है, संख्यात प्रदेशों में है और असंख्यात प्रदेशों में है. यह सिद्ध होता है। ___जैन परम्परा में जीव का कोई एक संस्थान नहीं माना गया है, उसे अव्यक्त संस्थानवाला या अनिर्दिष्ट श्राकारवाला बतलाया गया है। इसका कारण यह है कि स्वभावतः जीव असंख्यात प्रदेशवाला है। लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने एक जीव के प्रदेश हैं। परन्तु अनादि काल से वह स्वतन्त्र नहीं है, कर्मबन्धनसे बद्ध है, इसलिये बन्धन अवस्था में उसे छोटा बड़ा जितना शरीर मिलता है उसके बराबर वह हो जाता है और मुक्त अवस्था में जिस अन्तिम शरीर से वह मुक्त होता है उससे कुछ न्यून रहता है। जैन न्याय ग्रन्थों में आत्मा की व्यापकता और अणुपरिमाणता दोनों का निषेध करके उसे जो मध्यम परिमाणवाला बतलाया गया है वह इसो अपेक्षा से बतलाया गया है। शरीर भी सबका एकसा न होकर किसी का सबसे छोटा होता है, किसी का उससे कुछ बड़ा और किसी का सबसे बड़ा। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाई है और महामत्स्य की संख्यात धनांगुल प्रमाण, इसी से अवगाहना के छोटे-बड़ेपने का अनुमान किया जा सकता है। किन्तु यह केवल अनुमान का ही विषय नहीं है प्रत्यक्ष से भी ऐसा प्रतीत होता है। हम देखते हैं कि लोक में ऐसी अवगाहनावाले जीव भी मौजूद हैं जो बहुत ही कठिनाई से देखे जा सकते हैं या जिन्हें देखने के लिये खुर्दवीन की आवश्यकता पड़ती है। और बहुत से जीव तो इतने
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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