SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ तत्त्वार्थसूत्र आकाश अनन्त है या ससीम है इस प्रश्न का वह इन शब्दों में उत्तर देता है कि आकाश समीम है किन्तु उसका अन्त नहीं है । अंग्रेजी में इसी बात को 'फाइनाइट बट अनबाउन्डेड' (finite but unbounded ) शब्दों द्वारा व्यक्त किया जाता है ।' आइन्दाइन के मतानुसार आकाश ( space ) की समोमता उसमें रहनेवाली प्रकृति ( matter ) के निमित्त से है। प्रकृति (पुद्गल) के अभाव में आकाश अनन्त है । १ । उक्त अस्तिकायों में द्रव्यपने की स्वीकारताद्रव्याणि । २ । धर्मास्तिकाय आदि उक्त चारों द्रव्य हैं। जो अपनी अपनी पर्यायों में द्रवण अर्थात् अन्वय को प्राप्त होता है वह द्रव्य कहलाता है । द्रव्य की द्रव्यता यही है कि वह अपनी त्रिकाल में होनेवाली पर्यायों में व्याप कर रहे। इन धर्मास्तिकाय आदि में द्रव्य का यह लक्षण पाया जाता है इसलिये इन्हें प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य रूप से स्वीकार किया गया है। पदार्थ न तो केवल पर्याय रूप ही है और न केवल अनादिनिधन या नित्य ही है किन्तु वह परिवर्तनशील होकर भी अनादिनिधन है। पूर्व सूत्र में जो चार धर्मास्तिकाय आदि गिना आये हैं। वे इस प्रकार के हैं यही इस सूत्र का आशय है ! वैशेषिक आदि ने द्रव्यत्व को पृथक् से सामान्य नामका पदार्थ माना है और उसके समवाय सम्बन्ध से पृथिवा आदि को द्रव्य स्वीकार किया है किन्तु द्रव्यत्व और पृथिवो आदि द्रव्यों को पृथक् पृथक् सिद्धि न होने से उनका ऐसा कथन करना युक्त प्रतीत नहीं होता। सांख्य पुरुष को तो कूटस्थ नित्य मानता है और प्रकृति को परिणामी नित्य । अब यदि पुरुष को कूटस्थ नित्य माना जाय तो .
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy