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________________ ५. ३.] जीवों में द्रव्यपने की स्वीकारता २०३ उसका प्रकृति के साथ संयोग नहीं बन सकता। तथा प्रकृति में परिणामी नित्यता तभी बन सकती है जब वह उसका स्वभाव मान लिया जाय । किन्तु परिणामी नित्यता यदि प्रकृति का स्वभाव स्वीकार किया जाता है तो मूल प्रकृति को विकार राहत कहना युक्त नहीं ठहरता । बौद्ध परम्परा में केवल सन्तान स्वीकार की गई है जो बिना सन्तानी के वन नहीं सकती। इससे स्पष्ट है कि ये सब मान्यताएँ केवल एक एक दृष्टिकोण को प्रधानता से ही स्वीकार की गई हैं जिससे मूल वस्तु के पूरे स्वरूप पर प्रकाश नहीं पड़ता, इसलिये ऊपर जैन मान्यता के अनुसार जो पदार्थ का परिवर्तनशील होकर अनादिनिधन बतलाया है वही बतलाना युक्त प्रतीत. होता है ।२। .. जीवों में द्रव्यपने की स्वीकारताजीवाश्च । ३। जीव भी द्रव्य हैं। . द्रव्य का जो स्वरूप पिछले सूत्र में बतला आये हैं वह जीवों में भी पाया जाता है, यही बतलाने के लिये प्रस्तुत सूत्र की रचना हुई है। इससे मालूम पड़ता है कि अन्य द्रव्यों से जीव द्रव्य स्वतन्त्र है। शंका-वैशेषिक दर्शन में पृथिवी आदि नौ द्रव्य स्वीकार किये हैं, उन्हें जैन दर्शन में द्रव्य रूप से पृथक् क्यों नहीं बतलाया है ? समाधान-बैशेषक दर्शन में जो नौ द्रव्य माने हैं उनमें से पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये स्वतन्त्र द्रव्य न होकर इनका अन्त व पुद्गल द्रव्य में हो जाता है, क्योंकि ये पृथिवी आदि एक पुऊल द्रव्य के विविध प्रकार के परिणमन हैं। इसी प्रकार मन का भी पुद्गल द्रव्य या जीव द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाता है। मन दो प्रकार का है-द्रव्यमन और भावमन । उनमें से द्रव्यमन का पुद्गल द्रव्य में
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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