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________________ ५. १.] ईथर का परिचय १६६ प्रदेशों के प्रचयरूप नहीं फिर भी उसके प्रत्येक अणु में प्रचयरूप होने की शक्ति है, इसलिये उसकी परिगणना भी अस्तिकायों में की जाती है। ____काल अजोव तत्त्व होकर भी कायवाला नहीं है इसलिये यहाँ उसकी परिगणना नहीं की गई है। ___ इन चार अस्तिकायों में से दर्शनान्तरों में आकाश का तो स्पष्ट उल्लेख मिलता है। सांख्य, योग, न्याय और वैशेषिक आदि सभी आस्तिक दर्शनों में आकाश तत्त्व को स्वीकार किया है। पुद्गल तत्त्व को भी इन दर्शनों ने स्वीकार किया है सही पर वे इसका प्रकृति, परमाणु आदि रूप से नामोल्लेख करते हैं। किन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को अन्य किसी भी दशनान्तर में स्वीकार नहीं किया गया है पर इससे इनके अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोकालोक का विभाग और गति स्थिति की साधारण कारणता इससे इनका अस्तित्व जाना जाता है। ___आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसन्धान से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है। गति, स्थिति और अवगाहन के साधारण कारण रूपसे भिन्न भिन्न तत्त्वों को स्वीकार करने की ओर उनका भी ध्यान गया है। इसके परिणाम स्वरूप वे तेजोवाही ईथर (eumaniferous-ether ) क्षेत्र ( field ) और आकाश (space) इन तीन तत्त्वों को स्वतन्त्र रूपसे स्वीकार करने लगे हैं जिन्हें क्रमशः धर्म, अधर्म और आकाश स्थानीय माना जा सकता है। इन तीन तत्त्वों के विषय में अनुसन्धान होकर जो निष्पन्न हुआ है उसका विवरण आगे दिया जाता है। ईथर का परिचय-- तेजोवाही ईथर सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है और यह विद्युत् चुम्बकीय तरंगों की गति का माध्यम है। प्रकाश के तरंग सिद्धान्त के
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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