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________________ पांचवां अध्याय सात तत्त्वों में से जीव तत्त्व का निरूपण दूसरे अध्याय से लेकर चौथे अध्याय तक किया। अब इस अध्याय में अजीव तत्त्व का निरूपण करते हैं। . अजीवास्तिकायके भेद-- अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । १ । : धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ये चार अजीवकाय हैं। अजीव शब्द जीव शब्द का निषेधपरक है, जो जीव नहीं वह अजीव इसका यह अभिप्राय है कि पहले उपयोग को जीव का लक्षण कहा है वह जिसमें नहीं पाया जाता वह अजीव है। इस प्रकार जीव के लक्षण का कथन करने से अजीव का लक्षण अपने आप फालत हो जाता है, इसलिये सूत्रकार ने अजीव का लक्षण न कहकर सर्व प्रथम उसके भेद गिनाए हैं। सूत्रकार ने अजीव शब्द के साथ काय शब्द भी जोड़ा है। इस शब्द से प्रदेशों का बहुत्व जाना जाता है। इसका यह मतलब है कि सूत्रकार ने यहाँ उन अजीव पदार्थों को गिनाया है जो शरीर के समान बहुप्रदेशी होते हैं। अजीवों में ऐसे मूल पदार्थ चार हैं--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय ओर पुद्गलास्तिकाय । अस्तिकाय का मतलब है बहुप्रदेशी भावात्मक पदार्थ । धर्मादिक ये चारों द्रव्य एक प्रदेशरूप न होकर प्रदेशों के प्रचय रूप हैं इसलिये तो कायवाले हैं और भावरूप हैं इसलिये अस्ति पदवाच्य हैं। इसीसे ये अस्तिकाय कहलाते हैं । यद्यपि पुद्गल द्रव्य मूलतः एक प्रदेशरूप है
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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