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तत्त्वार्थसूत्र
[४. २७. एक भवावतारी होते हैं, अर्थात् वे वहाँ से च्युत होकर मनुष्य होते है और उसी भव से मोक्ष चले जाते हैं।
शंका- सूत्र में द्विचरमता किसकी अपेक्षा से दी है ?
समाधान-मनुष्य भव की अपेक्षा से। अर्थात् निजयादिक से अधिक से अधिक दो बार मनुष्य होकर जीव मोक्ष हो जाता है यह इसका तात्पर्य है।
शंका-कोई-कोई विजयादिक के देव मनुष्य होते हैं। अनन्तर सौधर्म और ऐशान कल्प में देग होते हैं। अनन्तर मनुष्य होते हैं फिर निजयादिक में देवा होते हैं और अन्त में जहाँ से च्युत होकर मनुष्य होते हैं तब कहीं मोक्ष जाते हैं। इस प्रकार इस निधि से निचार करने पर मनुष्य के तीन भन हो जाते हैं, इसलिये मनुष्य भना की अपेक्षा द्विचरमपना नहीं ठहरता ?
समाधान-- तब भी जियादिक से तो दो बार ही मनुष्य जन्म लेना पड़ता है, इसलिये पूर्वोक्त कथन बन जाता है। ऐसा जीव यद्यपि मध्य में एक बार अन्य कल्प में हो आया है पर सूत्रकार ने यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की है। उनकी दृष्टि यही बतलाने की रही कि विजयादिक से अधिक से अधिक कितनी बार मनुष्य होकर जीव मोक्ष जाता है। ___ शंका-नौ ग्रैवेयक तक के देवों के लिये भी मोक्ष जाने का कोई नियम है ? __ समाधान-नौ अवयक तक अभव्य जीव भी पैदा होते हैं इसलिये वहाँ तक के देवों के लिये मोक्ष जाने का कोई नियम नहीं है ।। २६ ॥
तिर्यंचों का स्वरूपऔपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तियग्योनयः ॥ २७ ॥