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________________ ४. २६.] अनुत्तर विमान के देवों के खास नियम १८९ पश्चिमोत्तर अर्थात् वायव्य कोण में तथा अरिष्ट उत्तर दिशा में रहते हैं। इनके अतिरिक्त सोलह प्रकार के लौकान्तिक देव और हैं जो इन आठों के मध्य में रहते हैं। सारस्वत और आदित्य के मध्य में अग्न्याभ और सूर्याभ रहते हैं। आदित्य और वह्नि के मध्य में चन्द्राभ और सत्याभ रहते हैं। वह्नि और अरुण के मध्य में श्रेयस्कर और क्षेभंकर रहते हैं। अरुण और गर्दतोय के मध्य में वृषभेश और कामचर रहते हैं। गर्दतीय और तुषित के मध्य में निर्माणरजः और दिगन्त रक्षित रहते हैं। तुषित और अव्यावाध के मध्य में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित रहते हैं। अव्यावाध और अरिष्ट के मध्य में मरुत् और वसु रहते हैं। तथा अरिष्ट और सारस्वत के मध्य में अश्व और विश्व रहते हैं। इन सोलह भेदों का अन्तर्भाव आठ भेदों में हो जाता है तथापि उनका पृथक अस्तित्ष दिखलाने के लिये सूत्र में 'च' शब्द दिया है ॥ २४-२५॥ अनुत्तर विमान के देवों के विषय में खास नियम विजयादिषु द्विचरमाः ॥२६॥ विजयादिक में देव द्विचरम होते हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पाँच विजयादिक हैं। इनमें से सर्वार्थसिद्धि को छोड़कर शेष चार विमानों में रहनेवाले देव द्विचरम हैं अर्थात् वे अधिक से अधिक दो बार मनुष्य जन्म लेकर मोक्ष जाते हैं। यथा-विजयादिक चार विमानों से च्युत होकर मनुष्य जन्म, अनन्तर मनुष्य पर्याय का त्याग कर चार अनुतर विमानों में देव जन्म, अनन्तर देव पयोंय का त्याग कर मनुष्य जन्म और अन्त में उसी जन्म से मोक्ष । परन्तु सर्वाथसिद्धि के देव
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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