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३. २७.-३४.] शेष कथन भी असर नहीं होता है। शास्त्रों में जो कमभूमि और अकर्मभूमि (भोगभूमि) का विभाग दिखाई देता है उसका कारण यही है। कर्मभूमि यह कर्म अर्थात् कर्तव्य प्रधान क्षेत्र है। यहाँ जीवन में अच्छे और बुरे जैसे निमित्त मिलते हैं उनके अनुसार वह बनता
और विगढ़ता रहता है। कर्म बिना फल दिये क्षय को नहीं प्राप्त होता इसका यह अर्थ नहीं कि कर्म की रेखा नहीं बदलती। किन्तु इसका यह अर्थ है कि निमित्त के अनुसार कर्म अपना कार्य करता है। नरक में तेतीस सागर आयु भोगते हुए वहाँ के अशुभ निमित्तों की प्रबलता के कारण सत्ता में स्थित समस्त शुभ कर्म अशुभ रूप से परिणमन करते-रहते हैं और देवगति में इसके विपरीत अशुभ कर्म शुभ रूप से परिणमन करते रहते हैं। निधत्ति और निकाचित रूप कर्मो का फल भोगना ही पड़ता है ऐसा कोई नियम नहीं है। वस्तु स्थिति यह है कि जिनका बन्ध निधत्ति और निकाचित रूप नहीं भी होता है यदि उनके बदलने का निमित्त न मिले और उदयकाल में अनुकूल निमित्त बना रहे तो उनका भी फल भोगना पड़ता है और जो निधत्ति और निकाचित रूप कर्म हैं, जिनमें कि उदीरणा और संक्रम ये दो या उदीरणा उत्कर्षण, अपकर्षण और संक्रमण ये चार नहीं होते उनकी भी स्थिति पूरी होने पर यदि उनके उदय के अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र और काल न हो तो जाते-जाते वे भी अपने रूप से फल न देकर अन्य सजातीय प्रकृति रूप से फल देने के लिये वाध्य हो जाते हैं। इसलिये यद सिद्धान्त फलित होता है कि अधिकतर प्राणियों का जीवन उस उस क्षेत्र के प्राकृतिक नियमों पर अवलम्बित है। प्रस्तुत दो सूत्रों में सातों क्षेत्रों के इन्हीं प्राकृतिक नियमों का निर्देश किया गया है। सातों क्षेत्रों में ये प्राकृतिक नियम काल की प्रधानतासे हैं इसलिये यहाँ उन्हीं की अपेक्षा मुख्यता से वर्णन किया गया है।
जिस काल में प्राणियों के उपभोग, आयु और शरीर आदि उत्तरो