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________________ १५८ तत्त्वार्थसूत्र ३. २७-३४] तर उत्सर्पणशील होते हैं वह उत्सर्पिणी काल कहलाता है और जिसमें ये सब अवसपणशील होते हैं वह अवसर्पिणी काल काल के दो भेद कहलाता है। इनमें से प्रत्येक काल के छह छह भेद हैं। अति दुष्षमा, दुष्षमा, दुष्पम दुष्षमा, दुष्षमसुषमा, सुषमा और दुष्षमषुषमा इस क्रम से उत्सर्पिणीकाल होता है और अवसर्पिणीकाल इसके विपरीत क्रम से होता है। इन दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल कहलाता है जो बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है। उत्सर्पिणी के छहों काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी के छह काल आते हैं । इस प्रकार उत्सर्पिणी के पश्चात् अवसर्पिणी और अवसर्पिणी के पश्चात् उत्सर्पिणी यह क्रम चालू रहता है। उक्त छह कालों में पहला काल इक्कीस हजार वर्ष का है, दूसरा भी इतना ही है। तीसरा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकड़ी सागर प्रमाण है, चौथा दो कोडाकोड़ी सागर प्रमाण है, पाँचवाँ तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है, और छठा चार कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। यह काल जिस क्रम से ऊपर नाम लिखे हैं उस क्रम से बतलाया है। उत्सर्पिणी के प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल में तथा अवसर्पिणी के चतुर्थ, पंचम और षष्ठ काल में कर्मभूमि रहती है। इनके अतिरिक्त शेष काल अकर्मभूमि अर्थात् भोगभूमि सम्बन्धी हैं। ____ यह उपर्युक्त कालचक्र का परिवर्तन भारतवर्ष और ऐरावत वर्ष में होता है शेष खण्डों में नहीं । शेष पाँच खण्डों में निवास करने वाले प्राणियों के उपभोग, आयु और शरीर का परिमाण आदि सदा एक से रहते हैं, जैसा भरत और ऐरावत में इनका परिवर्तन होता रहता है वैसा परिवर्तन वहाँ नहीं होता। इनमें से हैमवत क्षेत्र के . प्राणियों की स्थिति एक पल्य.प्रमाण होती है। यहाँ क्षेत्रा म काल मयादा निरन्तर उत्सर्पिणो का चौथा या अवसर्पिणी का तीसरा काल प्रवर्तता है। मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई दो हजार धनुष
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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