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तत्त्वाथेनूत्र
[२.९.
विषय में यह मानना युक्त नहीं कि जो विशेषको ग्रहण करे वह ज्ञान है और जो सामान्यको ग्रहण करे वह दर्शन है। किन्तु यह मानना ही युक्त है कि बाह्य पदार्थ को ग्रहण करना ज्ञानोपयोग का कार्य है
और उसके लिये आत्मा का स्वप्रत्ययरूप प्रयत्न का होना दर्शनोपयोग का कार्य है।
आगम में ज्ञानोपयोगको साकारोपयोग और दर्शनोपयोग को अनाकारोपयोग भी कहा है। सो यहाँ पर आकार का अर्थ उपयोग से
पृथकभूत कर्म लेना चाहिये । आशय यह है कि जिस अन्य प्रकार से
N उपयोग का विपय उससे भिन्न पदार्थ होता है वह
- साकारोपयोग है और जिस उपयोग का विपन्न उससे भिन्न पदार्थ नहीं पाया जाता है वह अनाकारोपयोग है। दर्शनोपयोग में 'यह घट है पट नहीं स प्रकार बाह्य पदार्थगत व्यतिरेक प्रत्यय भी नहीं होता और 'यह भी घट है यह भी घट है' इस प्रकार बाह्य पदार्थगत अन्वय प्रत्यय भी नहीं होता, इसलिये वह बाह्य पदार्थ को नहीं ग्रहण करता यही निश्चित होता है। . ___ ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभङ्गज्ञान ।
यहाँ पर ज्ञान और अज्ञान का अन्तर सम्यक्त्व के ज्ञानोपयोग के . अाठ भेद
__ सद्भाव और असद्भाव कृत है। सम्यकत्व के सद्भाव में
__ सब ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहे जाते हैं और सम्बकत्व के अभाव में ही ज्ञान अज्ञान या मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं।
शंका-यदि ऐसा है तो फिर मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान के प्रतिपक्षी अज्ञानों को क्यों नहीं गिनाया ?
समाधान-इन दोनों ज्ञानों के प्रतिपक्षी अज्ञान नहीं होते, क्योंकि ये सम्यक्त्व के अभाव में होते ही नहीं। मनःपर्ययज्ञान छठे गुणस्थान से और केवलज्ञान तेरहवें गुणस्थान से होता है।