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________________ २.९.] उपयोग के भेद हैं तो भी लक्षण ऐसा भाव हो सकता है जिससे पहिचान की जा सके। ये भाव ऐसे नहीं जिनके निमित्त से जीव की पहिचान की जा सके। अब रहा जीवत्व भाव सो यह चैतन्य का पर्यायवाची है और चेतना के ज्ञान और दर्शन ये दो भेद हैं। यही सबब है कि यहाँ उपयोग को जीव का लक्षण कहा है ॥ ८ ॥ उपयोग के भेद स द्विविधोष्टचतुर्भेदः। ९ । वह उपयोग दो प्रकार का है तथा आठ प्रकार का और चार प्रकार का है। प्रत्येक आत्मा का स्वभाव ज्ञान और दर्शन है जो सब आत्माओं में शक्ति की अपेक्षा समानरूप से पाया जाता है । तथापि उपयोग सब आत्माओं में एकसा नहीं होता। जिसे बाह्य और आभ्यन्तर जैसी सामग्री मिलती है उसके अनुसार यह होता है। इस प्रकार सब आत्माओं में न्यूनाधिक रूप से सम्भव इस उपयोग के संक्षेप में कुल कितने भेद हो सकते हैं यह बात इस सूत्र में बतलाई है उपयोग के मुख्य भेद दो हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। घट पट आदि बाह्य पदार्थो का जानना ज्ञान है और बाह्य पदार्थ को ग्रहण उपयोग के दो भेद करने के लिये आत्मा का स्वप्रत्ययरूप प्रयत्न का होना ६ दर्शन है । एक ऐसी मान्यता है कि सामान्यविशेषात्मक पदार्थ के सामान्य अंश को ग्रहण करनेवाला दर्शन है और विशेष अंश को ग्रहण करनेवाला ज्ञान है किन्तु विचार करने पर यह मान्यता समीचीन नहीं प्रतीत होती, क्योंकि पदार्थ के सामान्य और विशेष ये दोनों अविभक्त अंश है उनमें से एक काल में एक का स्वतन्त्ररूप से ग्रहण नहीं हो सकता। हम जो उनमें पार्थक्य कल्पित करते हैं वह तर्कद्वारा ही ऐसा करते हैं। वस्तु का ग्रहण होते समय तो उभयरूप ही वस्तु का ग्रहण होता है इसलिये ज्ञान और दर्शन के
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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