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________________ ८६ तत्त्वार्थ सूत्र [ २.८. की बात सो धत्तूरा, गांजा आदि में तो वह स्पष्ट ही प्रतीत होती है । इसी प्रकार शेष जड़ पदार्थों में भी वह कमी अधिक प्रमाण में पाई जाती है : चैतन्य की उत्पत्ति के लिये इसे दृष्टान्त रूप में उपस्थित करना उचित नहीं है । शंका - आत्मा में और गुणों के रहते हुए उपयोग को ही लक्षण क्यों कहा ? समाधान - यद्यपि यह सही है कि आत्मा अनंत गुण--पर्यायों का पिण्ड है पर उन सब में उपयोग मुख्य है, क्यों कि इसके द्वारा जीव की पहचान की जा सकती है, इसलिये उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा है। शंका-स्वरूप और लक्षण में क्या अन्तर है ? समाधान - प्रत्येक पदार्थ में जितने गुण और उनकी पर्यायें पाई जाती हैं वे सब मिल कर उसका स्वरूप है और जिससे उस पदार्थ की पहचान की जाती है वह लक्षण है, यही इन दोनों में अन्तर है । शंका- पहले जो जीव के स्वतत्त्व कह आये हैं उन्हें यदि जीव का लक्षण मान लिया जाता तो अलग से लक्षण के लिखने की आवश्यकता न रहती ? समाधान - पहले जो स्वतत्त्व बतलाये हैं उनमें से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक ये चार भाव तो नैमित्तिक हैं । पशमिक और क्षायिक भाव तो जीव में तभी उत्पन्न होते हैं जब इन भावों के विरोधी कर्मों का उपशम और क्षय होता है । यतः ये भाव सदा नहीं पाये जाते अतः इन्हें जीव का लक्षण नहीं कहा । यही बात क्षायोपशमिक और औदयिक भावों के सम्बन्ध में भी सम ना चाहिये । ये भाव भी सदा जीव के नहीं पाये जाते । अब रहा पारिणामिक भाव से उसके तीन भेद हैं जीवत्व, भव्यत्व और अभ व्यत्व । सो इनमें से यद्यपि भव्यत्व और अभव्यत्व अनिमित्तक भाव
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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